SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २०१ उरु चरितम् असमय भवतामतत् औदास्यं किं नु हेतुकम् ॥८४ अग्रसनस्तदाब्रवीत् वैश्यानां ननु कर्तव्यं पशुरक्षा प्रपालनम् ॥८५ हिंसनं हि महत्पापं वैश्यानां प्रतिषेधितम् ॥८६ मया महान् भ्रमोऽकारि यागे पशुहिंसनम् । न जाने ह्यस्य............भगवान् कि प्रदास्थति ॥८७ कियजन्माधि मम नाके वसनं भवेत् अलं हिंसामयात् यागात्........श्रेय उच्यते ॥८८ इथं भ्रातृवचः श्रुत्वा शूरसेनोऽब्रवीत् तदा दुःखितेषु दयालो हि श्रूयतां ननु मद्वचः ||८६ शूरसेन ने हाथ जोड़ कर अपने भाई को कहा- आपकी यह उदासीनता असमय की है। इसका क्या कारण है ? ८४ अग्रसेन ने तब कहा- वैश्यों का कर्तव्य निश्चय ही पशुओं की रक्षा और पालन करना है । हिंसा करना महापाप है। वैश्यों के लिये उस का प्रतिषेध किया गया है। मैंने बड़ा भारी भूम किया, कि जो यज्ञ में पशु हिंसन किया । न जाने, इसका क्या फल मुझे मिलेगा ? न जाने कितने जन्मों तक मुझे नरक में रहना होगा ! अब इस हिंसामय यश का अन्त हो- इसी में श्रेय है । ८५-८८ __ अपने भाई के इन वचनों को सुनकर शूरसेन बोला- हे दुःखितों के प्रति दयालु ! मेरे वचनों को सुनिये । ८९ For Private and Personal Use Only
SR No.020021
Book TitleAgarwal Jati Ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaketu Vidyalankar
PublisherAkhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
Publication Year1938
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy