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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९९ उरु चरितम् दशाधिकाः सप्त यागा: वत्स पूर्णास्तदाभवन् ॥७४ अष्टादशतमो यागो अभृच्च महर्षिभिः हिंसातो ह्यग्रसेनस्य अकस्मात्तु घणा हृदि ॥७५ यया हिंसया नरकं गच्छन्ति पुरुषाधमाः तस्यामेव प्रवृत्तोऽमेव राजा ह्यचिन्तयत् ॥७६ वैश्यानां परमो धर्मः प्राधान्येन प्रर्कीर्तितः पशूनां पालनं चैव सर्वतः परिरक्षणम् ॥७७ यागे पशुवधश्चास्ति अतोऽहं पापभाक् स्मृतः प्रतिक्षण विचारोऽयं दृढत्वं प्राप्तवान् इति ॥७८ तस्य दिवसस्य कृत्यं तु अग्रसनः समापयत् । शयनागारे प्रविष्टः स... ...... परिचिन्तयत् ॥७६ यश का ब्रह्मा मुनि गर्ग बना । सतरह यज्ञ तो हे वत्स ! तब पूर्ण हो गये। जब अठारहवां यज्ञ महर्षियों ने शुरू किया, तो अग्रसेन के हृदय में हिंसा से अकस्मात् घृणा उत्पन्न हो गई । ७४-७५ राजा ने सोचा, कि जिस हिंसा से नीच पुरुष नरक को प्राप्त होते हैं, मैं उसी में प्रवृत्त हुवा हूँ । ७६ __ वैश्यों का प्रधान धर्म मुख्यतया यह कहा गया है, कि वे पशुओं का पालन तथा उनकी सब ओर से रक्षा करें । यज्ञ में पशु बध होता है, इस लिये मैं पाप का भागी हूँ । यह विचार प्रति क्षण मेरे हृदय में दृढ़ होता जारहा है । ७७-७८ For Private and Personal Use Only
SR No.020021
Book TitleAgarwal Jati Ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaketu Vidyalankar
PublisherAkhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
Publication Year1938
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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