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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अग्रवाल जाति का प्राचीन इतिहास १६६ तथा कृत्वा स सभामध्ये शक्रम्....आनयत् ऋषिः ॥१०६ आलिङ्गय चाक्षरां दत्त्वा सुन्दरी मधुशालिनीम् अर्हयामास विधिना ययौ स्वर्ग च नारदः ११० राजा अग्रसेन पुनः लक्ष्मी पूजा के लिये यमुना तट पर गये राजा राशीं समाहृत्य नागकन्यां यशस्विनीम् पूर्वी प्रवहणास्था च सार्धसप्तदशैः सह ॥१११ तावरणये....सुतपसा तोषयता हरिम श्वासैश्च निराहारैः यमुनोपवने वसन् ॥११२ ( ऋषिना महदैसेन षड् उर्मीरहितेन च तोगस्स उवाचेदं हरिश्चन्द्रं महीपतिम् ॥११३ तुम इन्द्र के साथ सन्धि कर लो, वृथा द्रोह से क्या लाभ है ? यह कह कर वे ऋषि ( नारद ) सभा के बीच में शक्र ( इन्द्र ) को लाये । वहां ( अग्र) ने उन का आलिंगन किया, और सुन्दरी, मधुशालिनी अक्षरा ( ? ) देकर उनकी भलीभांति पूजा की । यह मब कर के नारद मुनि स्वर्ग को चले गये। १०९-११० राजा ( अग्र ) अपनी मुख्य रानी यशस्विनी नागकन्या को लेकर सब साढ़े सतरह ( रानियों ) के साथ प्रवहण ( नौका ) पर आये और यमुना नदी के तट पर एक जङ्गल में तपस्या, श्वास ( -निग्रह ) तथा निराहार व्रत द्वारा हरि को सन्तुष्ट करना शुरू किया । १११-११२ [तोग ने इस प्रकार राजा हरिश्चन्द्र को कहा-तू भी यही पूजा कर, जा और अपना राज्य फिर प्राप्त कर । ऋषि के साथ तेरी फिर प्रीति For Private and Personal Use Only
SR No.020021
Book TitleAgarwal Jati Ka Prachin Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaketu Vidyalankar
PublisherAkhil Bharatvarshiya Marwadi Agarwal Jatiya Kosh
Publication Year1938
Total Pages309
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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