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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandit सूत्रम् // 1116 // - |प्रमाणे जाणवा, तेथी अहीं टुंकाणमा नियुक्तिकार कहे छे. नो चेव होइ मुक्खो, सा उ विमुत्ति पगयं तु भावेणं / देसविमुका साहू, सव्वविमुक्का भवे सिद्धा / / 3 43 // आचा० जे मोक्ष तेज विमुक्ति हे, एना निक्षेपा मोक्ष माफक जाणवा, अहीं अधिकार भाव विमुक्तिनो ठे, भाव विमुक्ति देश अने में // 1116 // सर्व एम वे भेदे छे, देशथी सामान्य साधुथी मांडीने भवस्थ (शरीरधारी) केवली सुधी जाणवा, सर्व विमुक्ति तो आठ कर्मना अय हा थवाथी सिद्धो जाणवा, मूत्रानुगममां मूत्र उच्चारधू, ते कहे हे अनित्य अधिकार. अणिच्चमावासमुविति जंतुणो, पलोयए मुच्चमिणं अणुत्तरं / विउसिरे दिन्नु अगारबंधणं, अभीरु आरंभपरिग्ग है चए // 1 // जेमां जीव रहे ते आवास छे, एटले मनुष्य विगेरे भवमां मळेलं शरीर छे. तेने प्राणोओ वारंवार मेळवे छे, के जे चार गतिमा जीव ज्या ज्या उत्पन्न थाय छे, त्यां अनित्य भाव पामे डे, (अर्थात् गतिमां एके निश्चळ स्थान नथी) आ प्रमाणे जिनेश्वरतुं वचन समजीने बिद्वान पुरुप पुत्र स्त्री धन धान्य विगेरेवाळु घरन बंधन छोडे, तथा साते प्रकारना भव छोडीने परिसह उपसर्गथी न डरतो सावधकृत्य तथा बाह्य अभ्यंतर परिग्रह छोडे पर्वत अधिकार. तहागयं भिक्खुमणंतसंजय, अणेलिस विन्नु चरंतमेसणं / तुदति वायादि अभिद्ववं नरा, सरेहि संगामगर्य व कुंजरं // 2 // प्रथम श्लोकमां बतावेल अनित्य भावना भावेलो, घर बंधन छोडेलो, आरंभ परिग्रह रहित अनंत काय विगर एकेंद्रियादि - - - - For Private and Personal Use Only
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
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