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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९६० ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जे भयंतारो तप्पगाराई आएसगाणि वा जान गिहाणि वा तेहि उवयमाणेहिं उवयंति अयमाउसो ! अभितकिरिया यावि भवइ ३ || ( मू० ८० ) ( अहीं प्रज्ञापक विगेरेनी अपेक्षाए ) पूर्व विगेरे दिशामां श्रावको अथवा प्रकृतिभद्रक अन्य गृहस्थो नोकरी सुधी होय, तेओने साधुनो “आवो उपाश्रय कल्पे" एवी खबर न होय पण उपाश्रय आपवाथी स्वर्ग विगेरेनुं फळ प्राप्त थाय, ते क्यांयथी जाणीने श्रद्धा करीने हृदयमां ते मचवाथी घणा साधु विगेरेने उद्देशीने त्यां आराम विगेरेमां यानशाला विगेरे पोताना माटे करतां साधु विगेरेने जग्या आपका माटे ते मकानो मोटा कराव्यां होय, ते मकानोनां नाम कहे छे, आदेशन (लुवारनी शाळा ) आयतन ( देवकुलनी जोडे बनावेल ओरडाओ ) देवकुल (देवळ) सभा ( चारवेदने भगवानी पाठशाळा ) परत्र पुण्य ( दुकानो ) पुण्यशाळा (घशाळा) यान ग्रह ( रथ विगेरे राखवानुं स्थान ) यानशाळा ( रथ विगेरे बनाववानुं स्थान ) सुवाकर्म ते ( ज्यां खडीनु परिकर्म थाय) आ प्रमाणे दर्भ वर्ध वल्कन अंगार काष्ठ कर्म विगेरे छे, पटले जेमां घास चामडां झाडनी छाल के कोयला के लाकडांना कामनुं कारखानुं होय, मसाण होय, शून्य घर होय, शांतिकर्तनुं घर होय, पर्वत उपरनुं घर होय, सुधारेली पहाडनी गुफा होय, शैल उपस्थान ( पाषाणनो मंडप ) होय, आवां घरो चरक ब्राह्मणो विगेरेथी पूर्वे वपरायां होय, पछी खाली पडेलां होय, तो पछवाडे साधु तेमां उतरे, तो तेमां अल्प दोष (निर्दोष) होय, छे, आधुं गुरु शिष्यने कहे छे, ( अर्थात् तेवा मकानमां उतराय छे. ) इह खलु पाईणं वा जाव रोयमागेहिं बडवे समणमाहणअतिहित्रिण वणिमए समुद्दिस्स तत्थ तत्थ अगारिहिं अगाराई For Private and Personal Use Only सूत्रम् | ।। ९६०॥
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
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