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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९२४ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir नवमो उद्देशो. आम कहने नवम उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे, गया उद्देशामां अनेषणीय पिंडनो त्याग बताव्यो, अहीं पण बीजे प्रकारे तेज बतावे छे. इह खलु पाईणं वा ४ संतेगझ्या सढा भवंति, गाहावई वा जाव काम्मकरी वा, तेसि च णं एवं वृत्तपुब्वं भवइजे इमे भवंति समणा भगवंता सीलवंतो वयवंतो गुणवंतो संजया संबुडा बंभयोरी उबरया मेहुणाओ धम्माओ, नो खलु एएसि कप्प आहाकम्मिए असणे वा ४ भुतए वा पायए वा, से जं पुण इमं अहं अप्णो अडाए निट्ठियं तं असणं ४ सव्वमेयं समणाणं निसिरामो, अवियाई वयं पच्छा अप्पणो अट्टाए असणं वा ४ चेइस्सामो, पयप्पगारं निग्घोसं सुच्चा निसम्म तहष्पगारं असणं वा अफासूर्य० ॥ ( भू० ४९ ) 'इड' शब्द वाक्यना उपन्यास माटे छे, अथवा मज्ञापकना क्षेत्र आश्रयी छे. खच शब्द वाक्यनो शोभा माटे छे. ) प्रज्ञापकनी अपेक्षाए पूर्व विगेरे दिशाओ छे, अर्थात गुरु-शिष्यने कहे छे, के-पुरुषोमां केटलाक एवा श्रद्धालुओ श्रावक अथवा प्रकृतिभद्रक अन्य पुरुषो होय छे, ते गृहस्थ अथवा कर्म करी ( काम करनारा ) होय छे, तेमने मालीक कहे के, आ. गाममां आ आवेला साधु भगवंतो १८००० भेदे शीलवत पाळनारा छे, तथा पांच महाव्रत तथा छठु रात्रिभोजन विरमणत्रत धारनारा, तथा पिंडविशुद्धि विगेरे उतरगुणयुक्त इंद्रिय मनने दमन करवाथी संयत छे, तथा आस्नवद्वार (पापस्थान) रोकवाथी संतृत छे, नवविध ब्रह्मचर्य | गुल्पि पाळवाथी ब्रह्मचारी छे, मैथुन ( कुसंग ) थी दूर छे, १८ प्रकारनुं ब्रह्मचर्य पाळनारा छे, आवा साधुओने आधाकर्मी विगेरे For Private and Personal Use Only सूत्रमू ॥९२४॥
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
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