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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥ ९९२ ॥ www.kobatirth.org गणिकापट्ठियं लाभे० केवली०, अस्संज० भि० अगणि उस्सकिय निस्सकिय ओहरिय आहड दलइज्जा अह भिक्खुणं० जाव नो प्रडि० ।। (मृ० ३८ ) ते भिक्षु गोचरीमां गयेलो आ प्रमाणे जाणे, के पिठरक ( माटीना गोळा ) विगेरेमां माटीथी प्रथम लोंपीने चोडेल होय, तेमांथी काढीने चार प्रकारना आहारमांथी कांइपण आपे तो पश्चात्कर्मना दोपथी मळतो आहार पण न ले, प्र० - शामाटे ? उ० केवळी प्रभु तेने कर्म उपादान कहे छे, के ते गृहस्थ भिक्षुकनी निश्राए माटोथी लींपेलुं वासण होय, तेमांथी काढीने कांइपण आहार आपे, तो ते वासण खोलतां पृथ्वीकायनो आरंभ करे, तेज केवळी प्रभु कहे छे, तथा अग्नि वायुनो तेमज वनस्पति तथा सकायनो पण आरंभ करे, अने साधुने आप्या पछी बाकी रहेल मालना रक्षण माटे ते वासणने पाएं लोंपे माटे साधुने पूर्व कहे| ली आ प्रतिज्ञा होवाथी अने तेज हेतु तेज कारण होवाथी आ उपदेश छे के, तेनुं माटीथी लींपेलुं वासण उघडावीने मळतुं भोजन के वस्तु कंपण लेबुं नहि. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वळ ते भिक्षुक गृहस्थना घरमा पेसतां बळी आवुं भोजन विगेरे जाणे, तो नले, एटले पृथ्वीकाय उपर स्थापेल आहारने जाणीने पृथ्वीकायना संघट्टन विगेरेना भयो अमामुक जाणाने मळतुं होय तो पण नले, एज प्रमाणे पाणी उपर अनिकायमा स्थापेल होय तो पोते ले नहि, कारण के केवळी तेमां आदान कहे छे, तेज बतावे छे, 'असंयत' गृहस्थ भिक्षु माटे अनि उपर स्थापेल वासणने आमतेम फेरवी आहार आपे तेथी ते जीवोने पीडा थाय माटे साधुओनी आ प्रतिज्ञा छे के तेत्रो आहार लेवो नहि. से भिक्खू वा २ से जं० असणं वा ४ अच्चुसिणं अस्संए भि० सुप्पेण वा विदुणेण वा तालियंटेण वा पत्तेण वा साहाए For Private and Personal Use Only सूत्रमू ॥९९२॥
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
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