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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूत्रम् SOCCAS ॥९०१॥ परिभाएह वा णं,सेणमेवं वयंत परा वइज्जा-आउसंतो समणा ! तुम चेव णं परिभाएहि, से तत्थ परिभाएमाणे आचा नो अपणो खधं २ डायं २ ऊसदं २ रसियं २ मणुन्नं २ निधं २ लुक्ख २, से तत्व अमुस्छि र अगिध्धे अग (ना) ढिए अणज्ज्ञोववन्ने बहुसममेव परिभाइजा, से णं परिभाएमाणं परो वइज्जा-आउसंतो समणा ! माणं ॥९०१॥ तु परिभाएहि सन्वे वेगइभा ठिया उ भुक्खामो वा पाहामो वा, से तत्थ भुजमाणे नो अप्पणा खद्धं खद्धं जाव लुक्खं, से तत्थ अमुच्छि ए ४ बहुसममेव अॅजिज्जा वा पाइज्जा वा ॥ (मू० २९) ते साधु गाम विगेरेमा भिक्षा माटे पेठेलो एम जाणे, के आ घरमा प्रथम श्रमण विगेरे पेठेल छे. तो तेने पहेला पेठेलो जोइने दान देनार तथा लेनारने अनीति न थाय, तथा अतरायकर्म न बंधाय, माटे ते बने देखे, त्या उभा न रहेQ, तेमन | नीकळवाना दरवाजा आगळ पण बनेनी अभीति टाळवा विगेरे माटे उभा न रहे, पण ते साधु एकांतमा जइ कोइ न आवे न । देखे, त्यां उभो रहे, त्यां उभा रहेता पण जैन साधुने गृहस्थ जाते आहार आपीने आ प्रमाणे कहे के " तमे भिक्षा माटे बहु | आवेला छो, अने हुँ एकलो याकुलपणाथी आहार वहेंची आपवाने शक्तिवान नथी, हे श्रमणो ! में तमने बधा साधुओने चारे ४ प्रकारनो आहार आप्यो छे. तेथी हवे तमे पोतानी इच्छा प्रमाणे ते आहारने एकठा बेसीने खाओ, वापरो, अथवा व्हेंचीने लो, द आ प्रमाणे गृहस्थ आपे, तो उत्सार्गथी जैन साधुए ते आहार भागमा न लेवो, पण दुकाळ होय, अथवा लांचा पंथमां गोचरीनी तंगी होय तो अपवादथी कारणपडे ले पण खरो, पण ते आहार लेइने एबुं न करे, के ते आहारने छानोमानो लेइ एकांतमां 2 18/पोताने मळेलो माटे थोडो होवाथी हुँ कोइने न आयें, एकलो खाउं तेवू कपट न करे, त्यारे शु करवु ते कद्दे छे. For Private and Personal Use Only
SR No.020012
Book TitleAcharanga Stram Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1935
Total Pages328
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size15 MB
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