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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagersuri Gyanmandir भाचा ॥६१३॥ www.kabatirth.org विचारीने जोवा, ते बतावे छे, आ जे में कह्य; ते तमे (हे शिष्यो!) पण, मध्यस्थता धारण करीने समर्यादने जुओ; वळी आ | पण जुओ. काळ ते, समाधि-मरण छे. तेनी अभिकांक्षावडे साधुओ मोक्षमार्गवाळा संयममां बधी प्रकारे वर्ते छे. आ प्रमाणे हुं सूत्रम् कहुं छं. इति ब्रर्ब मि शब्द, प्रकरण, उद्देशो, अध्ययन, श्रुतस्कंध के, परिसमाप्तिमां आवे छे, तेमां, अहीं अधिकारनी समाप्तिमा ॥१३॥ जाणवो, आचार्यनो अधिकार कटा पछी विनेय (शिष्य) नो अधिकार कहे छे: वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणेणं नो लहइ समाहि, सिया वेगे अणुगच्छंति, असिता वेगे अनुगच्छंति, अणुगच्छ माणेहिं अणणुगच्छमाणेकहनिविजे ? (सू० १६१) विचिकित्सा ते, चित्तनो विप्लव छे, आम पण छे. एका प्रकारना संकल्पो ते, युक्तिथी उत्पन्न यता अर्थमां मोहना उदयथी ४ मतिनो विभ्रम थाय छे. ते आ प्रमाणेः-आ महान् तपनो कलेश रेतीना कोळीया खावा जेवु निःस्वाद छे, ते करवाथी तेनुं फळ8 मळशे के नहि? कारण के, खेती करनार विगेरेने महेनत करवा छतां, फळ मळे छे के, नथी पण मळ्तुं ? आत्री मति मिथ्यात्वनो ४ अंश उदयमां आववाथी तथा, ज्ञेयने जाणवू गहन छे तेथी थाय छे, ते ज्ञेयने बतावे हे. अर्थ त्रण प्रकारनो छे. (१) सुखथी समजाय दुःखथी समजाय; अने बीलकुल न समजाय. - त्रणे सांभळनारना आधार | ४. उपर भेद छे, तेमां सुखाधिगम बतावे छे. जेमके-चक्षुवालो होय; अने चित्रकलामां निपुण होय; तेने रुपप्रसिद्धि (चित्र करवू) & सुलभ छे, अने अनिपुणने दुःखेथी चीतराय; पण आंधळाथी तो, बीलकुल देखायाविना न चीतराय; तेमां अनधिगम रुप तो, अब-RI For Private and Personal Use Only
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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