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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ||६८३ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो दुवत्थ तिवत्थो, एगेण अचेलगो व संथरइ नहुने हिलेति परं सव्वेवि हु ते जिणाणाः ॥ १ ॥ जे वे, ऋण, एक अथवा वस्त्र रहित निभाव करे, ते वधा जिनेश्वरनी आज्ञामां होवाथी परस्पर निंदा करता नथी; तथा जिनकल्पिक, अथवा प्रतिमा धारण करेल, कोइ मुनि कदाचित् छ महिना सुधी पण पोताना कल्पमां भिक्षा न मेळवे, वो उत्कृष्ट तप करना छतां पोते रोज खानार क्रूरगड जेवा मुनिने एम न कहे के हे भात खावा माटे दीक्षा लेनारा मुंड! तें खात्रा माटेज मात्र दीक्षा लोधी छे ! [एवं कहीने अपमान न करे. ] तेथी आ प्रमाणे समत्व दृष्टिनी प्रज्ञावडे संसार भ्रमण रूप कपायने दूर करी समता धारण करीने ते मुनि संसार सागर तरेलो छे तेज सर्व संगथी मुक्त छे, तेज सर्व सावध अनुष्ठानथी छुटेल जिनेश्वरे वर्णव्यो छे, पण बीजो नहिं. एवं सुधर्मास्वामी कहे छे. म० - हवे ते प्रमाणे जे संसार श्रेणीने त्यागी संसारसागर तरेलो मुक्त वरणच्यो तेत्रा उत्तम साधुने अरति पराभव करे के नहि ? उ - कर्मना अचित्य ( विचित्र) सामर्थ्यथी परिभवे पण खरी ! तेज कहे छे. - ari भिक्खु तं चिरा ओसियं अरई तत्थ किं विधारए ?, संधेमाणे समुद्दिए, जहा असंदीण एवं से धम्मे आरियपदेसिए, ते अणत्रकंखमाणा पाणे अणइवाएमाणा जड़या मेहात्रिणो पंडिया, एवं तेसिं भगवओ अणुट्टाणे जहा से दिया पोए एवंते सिस्सा दिया य राओ य अणुपुव्वेण वाइय तिबेमि (सू० १८७) धूताध्ययने तृतीयोदेशकः ॥ ६-३ ।। For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥ ६८३ ॥
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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