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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥७७३॥ www.kobatirth.org संसारमा पर्यटन करवाथी श्रांत छे, ते सावध अनुष्ठानथी विरत छे, शोभन लेश्या ते जेणे अंतःकरणनी निर्मळडत्ति तेजोलेश्या विगेरे धारण करवाथी तेसुसमाहत लेश्यावाळो छे, आवो बनीने पूर्वे कडेली प्रतिज्ञा लइने पाळवामां समर्थ छे, ते तप अथवा रोग ना कारणे ग्लान भावने पामेलो होय, छतां पण ते पोतानी प्रतिज्ञानो लोप न करतो शरीर त्यागवा भक्त प्रत्याख्यान करे, अने ते भक्त परिज्ञामां पण काळ पर्यायवडे अनागत् परिज्ञा (चार वर्षनी संलेखनानो समय नथी, तेमां पण काल पर्याय छे, जेणे शिष्योने भणावी गणावी तैयार कर्या होय, अने तप वडे संलिखित देहवाळो होय तेनो जे काळ पर्याय मृत्युनो अवसर प्रशंसवा योग्य छे, तेवो आ ग्लान थयेला कल्पधारीने पण एरोज अवसर छे. कारण के बन्नेमां कर्मनी निर्जरा समान छे, ते कल्पधारी भिक्षु ग्लानपणाथी अणशननां विधानमां व्यन्तिकारक कर्म क्षय करनारो छे बाकीनुं वधुं पूर्व माफक जाणवु पांचमो उद्देशो समाप्त. p Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छट्टो उद्देशो पांचमी को पछी छट्टो उद्देशो कहे छे, तेनो आ प्रमाणे संबंध छे. गया उद्देशामां बतान्युं के ग्लान साधुए भक्त प्रत्याख्यान कर, अने आ उद्देशामां बतावशे के घृतिसंहनन विगेरेथी वळवाळो साधु एकत्व भावनाने भावीने इंगित मरण करे आ संबंधें आवेला आ उद्देशानुं पहेलुं सूत्र कहे छे. जे भिक्खु एगेण वत्थेण परिवुसिए पायबिईएण, तस्स णं नो एवं भवइ बिइयं वत्थं जाइ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥७७३॥
SR No.020011
Book TitleAcharanga Stram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1934
Total Pages186
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size10 MB
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