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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४७७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तथा मन, वचन, कायानी सावय क्रिया छोडवाथी गुप्त रहे; अथवा काचवा माफक पोतानुं शरीर संभाळी राखे; के, कोइ जीवने पीडा न थाय; ते संवृतगात्र मुनि छे, अने ते आलीन गुप्त बद्देवाय छे, तेवो मुनि साधुनां अनुष्ठाननो बरोबर रीते करे. मुमुक्षु साधुने पोतानां आत्मबळथी संयम-अनुष्ठान फळवाळु थाय छे, पण पारकाना उपरोध ( आग्रहथी) नहीं एम बतावे छे. गुरु शिष्यने कहे छे:- हे पुरुष जो, तें ग्रह (घर) पुत्र, स्त्री, धन-धान्य, सोनुं विगेरेथी रहित तृण अने मणि-मोतीमां, तथा देफुं सोनामां समानदृष्टि राखनार मोक्षार्थी जीवने पण कदाच उपसर्ग भवतां व्याकुळ मति थतां मित्र विगेरेनी आकांक्षा याय; तो ते दूर करवा कहे छे: - ( हे शिष्य !) पुरुष एटले, सुखदुःखथी पूर्ण माटे पुरुष अथवा पुरिमां शयन करवावी पुरुष (जीव) छे, तेमां वथा जीवोमां उपदेश, तथा संग्रम-अनुष्ठान करवामां मनुष्य योग्य होवाथी तेने आश्रयी कहे छे. एटले सुशिष्य ने कहे; अथवा कोइ पुरुष संसारथी खेद पामेलो खराब अवस्थामां होय; अने ते पोताना आत्माने शीखामण आपतो होय; अथवा अन्य भव्यात्माने साधु उपदेश आपे के— " हे पुरुष! हे जोव! सारां अनुष्ठान करवाथी तुंज तारो मित्र छे, अने पापकर्म करवाथी तुंज तारो शत्रु छे! तोपछी, वीजा मित्रने केम शोत्रे छे? कारण के, उपकार करे ते मित्र छे अने ते उपकारी परमार्थ दृष्टिए अत्यंत अने एकांत गुण युक्त सन्मार्गे चालता आत्माने छोडीने बोजो कोइ शोधव शक्य नथी; अने संसारनां कार्यमा सहायकारीपणे वीजाने मित्रपणे मानवो ते मोदनुं विजृंभन ( चेष्टा ) छे. कारण के संसारीनी मित्रताथी परिणामे मोटा दुःखमां पडवारूप संसार समुद्रमां भ्रमण कराववाथी ते खरी रीते अमित्रज छे! तेनो सार आ छे. For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥४७७॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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