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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४४६॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वेदनीय कर्मनां वे सत्तास्थान छे. ते आ प्रमाणे: (१) साता अने असावा बन्ने होय. (२ तथा वन्नेमांथी एक साता, अथवा असाता ज्यारे पोते शैलीशी अवस्थामां सौथी डेल्ला समयना पहेला समयमां मोक्ष जवाना काळभां होय; त्यारे कोइपण एक साता के, असाता भोगवे ते बीगुं स्थान छे. मोहनीय कर्मनां पंदर सत्तास्थान छे ते आ प्रमाणे: (१) सोळ कषाय, नत्र नो कषाय अने ऋण दर्शन होय; त्यारे सम्यक्दृष्टि जीवने अठ्ठावी प्रकृति होय छे. (२) सम्यक् वमत मिश्रदृष्टिए सत्तावीस होय छे. (३) स्वभाव अनादि मिध्यादृष्टि होय; अथवा वे दर्शन वमतां छवीश होय. (४) सम्यक्दृष्टिने अट्ठावीश प्रकृतिमांथी अनंतानुबंधी चार कषाय वमतां अथवा क्षय थतां चांबीश होय. (५) तेनेज मिथ्यात्व क्षय थतां २३ (६) मिश्रदृष्टि क्षय थतां २२ (७) क्षायिक सम्यक्दृष्टि २१ (८) अमत्याख्यान अने प्रत्याख्यान - कषाय जतां १३ (९) कोइपण एक वेद क्षय थतां १२ (१०) बीजो वेद क्षय थतां ११ (११) हास्यादि छ दूर यतां ५ (१२) पुरुषवेदना अभावमा ४ (१३) संचलन क्रोध क्षय थतां ३ [१४] मान क्षय थतां २ (१५) मायाक्षय थतां ए एक लोभ रहे. अने ए लोभ दूर तो मोहनीय सत्ता पण गइ. सामान्यधी आयुष्य कर्मनी सुतानां वे स्थान छे ते आ प्रमाणे - ( १ ) परभवना आयुना बंधना उत्तर काळमां वे आयुष्य होय; अने तेना बंधना अभावमां जे आधुमां होय; तेज बीजुं स्थान छे. For Private and Personal Use Only 20 सूत्रम् ||४४६ ॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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