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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आबा० ॥४४०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सहे पण खेद न पामे. 'जागर' एटले असंयम निद्रा दूर थवाथी पोते संयममां जागतो छे अने अभिमानथी यता अमर्ष (अदेखा ) एटले बीजानुं बगाडवानो अध्यवसाय (विचार) ते वैर छे. ते वैरथी पोते दूर के एटले जागर अने वैर उपरत गुणवाळो वीर बने छे, ते कर्म शत्रुने दूर करवानी शक्तिवालो छे तेवा वीरने उद्देशीने गुरु कहे छे हे वीर ! तुं उपरना गुण धारण करीने पोताने अथवा बीजाने संसारना दुःखथी अथवा दुःखना कारणरूप कर्मथी बचीश अने वचावीश. अने उपरना उत्तम गुणोथी रहित प्रमादी जीव संसारना चक्रमां अने दुःखना प्रवाहमां संग करीने उंबतो रहीने ते शुं मेळवे छे ते कहे छे. जरा अने मृत्यु ए ने वश थइने ते प्राणी निरंतर महा मोहथी मूढ बनेलो स्वर्ग अने मोक्ष आपनार धर्मने जाणतो नथी अने संसारमां जीवने एवं कोइ पण स्थानज नथी के ज्यां जरा मृत्यु न होय, प्रश्नः - देवताओने जरा (बूढापो) नथी. उत्तर - देवताओने पण त्यांथी व्यववाना छ महिना पहेला उत्तम लेश्या वळ सुख मधु अने सुंदर वर्णनी हानि थाय छे। तेथी तेमने पण जरानो सद्भाव छे, कां छे के. देवा णं भंते! सवे समवण्णा ? नो इणडे समहे, सेकेणद्वेणं भंते! एवं बुच्चइ गोयमा' देवा दुविहा- वोवणग्गा य पच्छोचवणग्गा य तत्थ णं जे ते पुढोवत्रणग्गा तेणं अविसुद्ध वण्णयरा, जेणं पच्छोववणग्गा ते णं विसुद्धवण्णयरा For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४४०॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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