SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 157
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५७८॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir श्रीजो उद्देशो. हवे बीज उद्देशो कहे छे. तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे:- बीमा उद्देशामां कं के:-अविरतवादी ते परिग्रहवाको छे, अने आ त्रीजा उद्देशामां तेथी जलदुं कहे छे. आ प्रमाणे संबन्धथी आवेला आ उद्देशानुं पहेलुं सूत्र कहे छे. आवंती यावंती, लोयंसि अपरिग्गहावंती एएस चेत्र अपरिग्गहार्वती, सुच्चा वई मेहावी पंडियाण निसामिया समियाए धम्मे आरिएहिं पवेइए जहित्थ मए संधी झोसिए एवमन्नत्थ संधी दुजोस भवइ, तम्हा बेमि नो निहणिज वीरियं ( सू० १५९) आलोकमा जे कोइ परिग्रहवाळा विरत साधुओ छे, ते बधाए आ अल्प विगेरे द्रव्य छोटे; छते अपरिग्रहधारी मुनि वने छे, अथवा छ जीवनी कायमां ममस्वभाव तजनाथी अपरिग्रहधारी थाय छे. मः ठीक. पण, अपरिग्रहभाव केवी रीते बने ? ने कहे छे. 'सोचा वईति' (बीजी विभक्तिना अर्थमां प्रथम विभक्ति छे, तेथी) वाणी ते आ तीर्थकरे कहेला आगमरूप- आज्ञाने सांभळीने मेधावी ( मर्यादामा रहेलो) श्रुतज्ञान भणेलो हेयऊपादयने समजी तत्व ग्रहण करावानी प्रवृत्ति जाणनारो बने; तथा, पंडित ते गणधर आचार्य विगेरेनां विधि नियमरूप - वचनोने सांभळी | सचित-अचित वस्तुनो जाण बनी तेना परिग्रहनो त्याग करी अपरिग्रही बने प्रः ठीक तेम हशे; पण, निरावरण ज्ञान उत्पन्न यएला तीर्थकरोनो क्ये समये वाणीनो यांग (उपदेश) थाय छे, के अमे सांभळीए ? For Private and Personal Use Only ड सूत्रम् ॥ ५७८ ॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy