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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥५३७॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छु ? एम विचारी यथाशक्ति तेमां यत्न कर, तथा जर एटल शरीरने जीर्ण बनावी दे, एटले तपवडे शरीर एवं कर के बुट्टापाथी जीर्ण जेतुं लागे, अर्थात् विगइनो त्याग करीने आत्मा (शरीर) ने दुर्बळ बनावी देजे. प्रश्नः - शा माटे ? उत्तरः — जेम सार रहित (सुकां) लाकडांने हव्यवाह (अग्नि) शीघ्र बाळी मुके छे, ए दृष्टांत उपदेश आपे के के तुं कर्मने वाळी मुक. 'एवं अत्त समाहिए' उपर प्रमाणे आत्मा समाहित एटले ज्ञानदर्शन चारित्रवडे आत्मसमादित ( समाधिवाळो ) छे ते आत्मसमाहित छे, अर्थात् शुभ व्यापारवाळो छे. ( अथवा व्याकरणना नियमथी विशेषणने प्रथम लेवाथी आत्मा समाहितने | बदले ) समाहित आत्मारुप थाय छे, तेवो तुं वन, एटले जे अस्ति (स्नेहरहित वैरागी ) होय अने ते तप करे ते तपरूप अभि बडे कर्मरूप काटने वाली मुके के, उपर कहेला सूत्रार्थने दृष्टांत तथा बोधने गाथावडे नियुक्तिकार कहे छे. जह खलु झुसिरं कहूं, सुचिरं सुक्कं लहुं डहइ अग्गी, तह गलु खवंति कम्मं, सम्मचरणे ठिया साहू ॥नि. २३४ जेम सुका पोला लाकडाने अग्नि जलदी वाळे तेम उत्तम चारित्र पाळनारी साधु कर्मलाकडांने शीघ्र बाळे छे आ प्रमाणे प्रथम स्ने| हरहित बनीने द्वेषनी निवृत्ति करवा कहे छे 'विमिंच कोहं' विगेरे कारणे अथवा आ कारणे अति क्रूर अध्यवसायवाला क्रोधने छोड, अने क्रोधी शरीर कंपे के माने कहे छे के तुं निष्कंप बनी जा शुं भावीने ? ते कहे : इमं निरुद्धायं संपेहाए, दुक्खं च जाण अदु आगमेस्सं, पुढो फासाई च फासे, लोयं च पासवि फेदमाणं, जे निव्बुडा पावेहिं कम्मेहिं अणियाणा ते वियाहिय, तम्हा अतिविज्जो नो पडिसंज For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥५३७॥
SR No.020010
Book TitleAcharanga Stram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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