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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३१२ ॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir च्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, प्रशस्त त्रसादि दशक, शाता वेदनिय उंचगोत्र मळी २१ छे. पण देव अने नारकिना जीव मनुष्यगति अने अनुपूर्वी मली वे तथा औदारिक शरीर अंगेपांग मलीने थे. पहेलुं संघयण मलीने ए पांच सहीत शुभ बांधे छे. तमतमा (सातमी नारकी) वाळा तिर्येच गति तथा अनुपूर्वी मली वे तथा नीच गोत्र सहीत बांधे छे. आ प्रमाणे तेना अध्यवसाय उत्पन्न थतां आयुष्य न बांधतो प्रथम उपर कही गया ते जीव यथा प्रवृत्ति नामना करणवडे ग्रंथीने मेळवीने अपूर्व करणवडे मिथ्यात्वने भेदीने अंतरकरण करीने अनिवृत्तिकरणवडे सम्यकत्व मेळवे छे. त्यारपछी क्रमवढे कर्म ओछां थतां चढता भावना शुद्ध कंडक (शुद्ध भावना अंशने कंडक कहे छे.) मां देश विरति तथा सर्वविरति (साधुपणा)नो अवसर आवे छे. आ प्रमाणे कर्म भाव क्षण कहीने नो कर्मभाव क्षण बतावे छे. नो कर्मभावक्षण ते आळस मोह अवर्णवाद तथा स्थंभ (मान विगेरे ) ना अभावे सम्यकत्व विगेरेनी प्राप्तिनो अवसर छे. कारणके आळस विगेरेथी हणालो (प्रमादी जीव) संसारथी छुटवा समर्थ मनुष्य भव पामीने पण धर्म श्रद्धा विगेरे उत्तम गुणो मेळवतो नथी. कछे के.“आलस्स मोहऽवन्ना थंभा कोहा पमाय किविणत्ता भयसोगा अन्नाणा, विक्खेव कुऊहला रमणा ॥ १ ॥ आलस्य मोह अवरण (निंदा) स्थंभ (अहंकार) क्रोध प्रमाद, कृपणता, भय, शोक अज्ञान विक्षेप कुतुहल रमण आ १३ कारणो (१३ काठीआ) छे. एहिं कारणेहिं, लहूण सुदुलहंपि माणुस्सं । न लहइ सुइं हिअकरिं संसारुत्तारणिं जीवो ॥ २ ॥ For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३१२॥
SR No.020009
Book TitleAcharanga Stram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size11 MB
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