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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥४१२॥ www.kobatirth.org कहेत पण, मोह उत्पन्न थतां द्वेषी थाय; अने द्वेषी थइने भुं करे ते पण कहे छेः Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अवि य हणे अणाइयमाणे, इत्थंपि जाण सेयंति नत्थि, केयं पुरिसे कं च नए ? एस वीरे पसंसिए, जे बद्धे पडियमोयए, उड्ढं अहं तिरियं दिसासु से सबओ सब परिन्नाचारी, न लिप्यई छण पण वीरे से मेहावी अणुग्घायण खे यन्ने जे य बन्ध मुक्ख मन्नेसी कुसले पण नो बद्धो नो मुक्के ॥ (सू० १०२) क्रोधायमान थयलो राजा वाचाथी अपमान करे; अने तेनुं गायुं न गावाथी वखते मारवा पण तैयार थाय; एटले, लाकडीचाबकाथी साधुने मारे कनुं छे केः 'तत्थे वय निवणं बंधण निच्छुमण कडगमदो वा । निविसयं व नरिंदो करेज संघपि सो कुद्धो |१| क्रोधायमान थयलो निष्ठापन करे; बंधन करे; देशनिकाल करे; सेनापासे मार मरावे; अथवा, पोतानां राज्यमां आवतां बंध करे अथवा संघने पण दुःख आपे ते प्रमाणे, तच्चनिक (विगेरे नो ) उपासक - नंदवळनी कथाथी एटले, बुद्धनी उत्पत्तिना कथानकथी भागवत मतनो भल्लिग्राहनां दृष्टांतथी रौद्रमतनो पेढालनो पुत्र सत्यकी जमाना दृष्टांतने सांभळवाथी द्वेषी थाय छे. (बीजा मतना गुणो न जोतां इर्षारूपे कथाओ जोडी काढेल छे, तेवी कथा कहेतां बीजा मतवाळाने क्रोध थाय छे. माटे, बने त्यांसुधी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥४१२॥
SR No.020009
Book TitleAcharanga Stram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size11 MB
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