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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३६४॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इने चालता थ. आमुनिनुं मौन छे एटले मोक्षार्थि साधुनुं आ आचरण छे. तुं पण अनेक भव कोटिने भ्रमण करता अमूल्य एंवा संयमने पामीने सारी रीते पाळजे, आम गुरु शिष्यने समजावे छे. अथवा पोताना आत्माने उपदेश आपे छे. के तुं राग द्वेष न करजे, चोथो उद्देशो समाप्त थयो. (१ हवे पांचमो उद्देशो कहे छे. तेनो आ संबंध छे आ लोकमां भोगोने तजीने संयम देह पाळवाने माटे लोकनी निश्राए विहार करवो जोइए. ते आ उद्देशामां बतावे छे. आ लोकमां संसारथी खेद पामेला भोगना अभिलाष तजेला मोक्षाभिलाषिए पोतानामां गुरुए स्थापन करेला पंच महाव्रत भार वडे निवेद्य अनुष्ठान करनारा सुनिए दीर्घ संयमनी यात्रा माटे देहतुं परिपालन करवा लोकनी निश्राए बिहार करवो जोइए, कारण के आश्रय विना देहनां साधन क्यांथी थाय ? अने देह विना धर्म क्याथी थाय ? कां छे के “धर्मे चरतः साधोलोंके निश्रापदानि पञ्चापि । राजा गृहपतिरपरः षङ्काया गणशरीरे च ॥१॥” धर्ममा चालनारा साधुने लोकमां पांच निश्रानां पद छे, राजा गृहस्थ छकाय साधु समूह तथा शरीर ए पांच जाणवां वस्त्र, पात्र, अन्न, आसन, शयन, विगेरे साधनो छे. तेमां पण प्रायः निरंतर आहारनो मुख्य उपयोग छे, अने ते आहार गृहस्थ पाथी लेवानो छे. अने गृहस्थो जुदा जुदा उपायो वडे, पोताना पुत्र स्त्री विगेरे माटे आरंभमां प्रवर्तेला छे, तेमने त्यां साधुए संयम देहनी For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३६४॥
SR No.020009
Book TitleAcharanga Stram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size11 MB
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