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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३३०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अंगोपांग देवगति तथा अनुपूर्वी मली वे तथा नरकगति अने अनुपूर्वी मली वे ए वैक्रिय चतुष्टय (चोक) ए १२ कर्म प्रकृतिने निर्लेप करीने (दूर करीने) बाकीनी ८० प्रकृतिवालो बनी तैजस अने वायुकायमां उत्पन्न थयो त्यारपछी मनुष्यगति तथा अनुपूर्वी |मली वे ते दूर करीने उंच गोत्रने पल्योपमना असंख्येय भागवडे उद्वल करे छे. एथी तैजस वायुकायनो पहेलो भांगो थयो. ते आ प्रमाणे नीच गोत्रनो बन्ध, अने उदय पण अने तेज कर्मनी सकर्मता (सत्ता) छे. त्यांथी नीकळीने बीजी कायना एकेन्द्रियमां आवीने उपजे तो तेज भांगो थाय; अने त्रसकायमां पण अपर्याप्त अवस्थामां पण तेज भांगो याय; अने ज्यांसुधी उंच गोत्रनो निर्लेप न थाय; तो बीजो चोथो एम वे भांगा थाय ते बतावे छे. नीच गोत्रनो बंध, अने उदय, तथा तेज कर्मपणाथी सत्ताथी उभयरूपे बीजो भागो थाय; तथा ऊंच गोत्रनो बन्ध नीच गोत्रनो उदय, अने सत्कर्मपणुं बन्ने रूपे छे. ए चोथो भांगो छे, पण बाकीना चार भांगा नथीज थतांः कारण केः - तिर्यचयोनिमां उंच गोत्रना उदयनो अभाव छे तेज उंच गोत्रना ( अहंकारथी ) उदूलनवडे कलंकवाळा भावमां आवेलो जीव अनंतकाळ सुधी एकेन्द्रियमां रहे छे, अथवा उद्बलन थया विना तिर्यचमां अनंत उत्सर्पिणी, अने अवसर्पिणी रहे छे. प्रश्न - आवलिकाना संख्येय भाग समय संख्यावाळा पुद्गल परावर्त्त एम जोइए; पण पुद्गलपरावर्त्त केम जोइए ? आचार्यनो उत्तरः- जेओ औदारिक, वैक्रिय तैजस भाषाअनापान, (श्वासोश्वास) मन = ( आ छ थाय छे, पण सात लखेल छे. आहारक ए टीकामां लख रही गयुं छे.) कर्मसप्तकथी संसारना वचला भागमां पुद्गलो आत्मानी साक्षे एकमेकपणे परिणमेलाछे, ते For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३३०॥
SR No.020009
Book TitleAcharanga Stram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size11 MB
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