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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आचा० ॥३२२॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेओ उपर कहेली अप्रशस्त (संसारी विषय सुख) रतिथी दूर थयला छे, अने उत्तम रति (चारित्रमां प्रेमवाळा ) छे, ते केत्रा होय छे ते बतावे छे. विमुता हु ते जणा, जे जणा पारगामिणो, लोभमलोभेण दुर्गुछमाणे लद्धे कामे नाभि गाहइ ७४ द्रव्यथी एटले धन संगांना अनेक रीतना प्रेमथी मुकायला; अने भावथी विषय कषायथी प्रत्येक समये छुटता साधुओ जे भविष्यकाळमां वधारे वधारे निर्लोभी बने छे, ते पुरुषो सर्व प्राणीने समानभावे गणी निर्ममत्ववाळा बनी (संसारथी) पारगामी बने छे. पार ते मोक्ष छे, कारणके, संसार-समुद्रना किनारे जवानी वृत्तिनां कारणो ज्ञान, दर्शन, चारित्र ए त्रण छे, ते त्रणने पार कहे छे. | जेम, लोकमां सारा वरसादने चोखानो वरसाद कहे छे. एटले कारणने कार्यमा समान्युः तेथी ते प्रमाणे ज्ञान दर्शन चारित्रनो परे। जवानो आचार जेमनो छे, तेओ संसारना मोहथी के, विषयकपायथी मुक्त थाय छे. प्रश्नः - तेओ केवीरीते संपूर्ण पारगामी थाय ? उत्तरः – जोके, आ लोकमां लोभछे, ते वधाने तजवो दुर्लभ छे. जेमके क्षपक श्रेणीमां चढेला मुनिने पण ओछो ओछो करतां जरा जरापण लोभ रहे छे, तेवा जरा लोभने पण उत्तम साधु संतोषवडे पूर्वना लोभने निंदतो; अने छोडतो सामे आवता सुंदर विलासोने ( लोको प्रार्थना करे; छतां पण ) सेवतो नथी जेम महात्मा पोताना शरीरमां पण महत्व रहित थयलो छे, ते पर वस्तुना विषयसुखमां लुब्ध थतो नथी जेमके, ब्रह्मदत्त, चक्रवर्त्तिए पोताना पूर्वभवना भाइ चित्रमुनिने ओळखीने प्रार्थना कर्या छतां पण, For Private and Personal Use Only सूत्रम् ॥३२२ ॥
SR No.020009
Book TitleAcharanga Stram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1933
Total Pages204
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size11 MB
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