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आचा०
॥१७४॥
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छे तेनाथी मनोहरे शब्द नीकले छे तेथी वनस्पतितुं प्रचानपणुं तेमां बतान्युछे बीजी रीते विचारीए तो तंत्री चर्म पाणी विगेरेना संयोगधी पण शब्द उत्पन धाय छे अने रुपमा लाकडानी 'पूतळीओ, तथा घरनां तोरणो, वेदिका, स्तंभ' विगेरेमां पण रमणीयप आंखने छे. अने गंधमा कपुर पाटला लवली लविंग, केतकी सरस चंदन, अगुरु, कककोल काइला फळ जाति फळ, पत्रिका, केसरा, मांसी, छाल, पत्र विगेरेनी सुगंधी इन्द्रियोने आनंद आपनार थाय छे। अने जिस मृणाल, मूल, कंद, पुष्प, फळ, पत्र, कंटक, मंजरी, छाल, अंकुर, कुंपळ, अरविंद (कमळ), ना केसरा विगेरेनो रस जीभ इन्द्रियने बहु आनंद आवे छे ते रसो घणी जातना (asuri area विरे प्रत्यक्ष) के. तथा पद्मिनी पत्र, कमल दल, मृणाल, वल्कल दुकुल: शाटक, (साडी ओशीकां तळाइना ओछाड विगेरे कोमळ होय ते शरीरने स्पर्शमां सुख आये छे. ए प्रमाणे उपर कहेली वनस्पतिथी बनेली वस्तुना शब्दादि गुणोमां | जे वर्ते ते संसारमां भये अने जे आवर्तमां वर्ते ते रागद्वेषपणे वर्तवाथी गुणोमां वर्ते छे. एम जाण ते आवर्तनाम स्थापना विगेरेथी चारभेदवाको छे नामस्थापना सुगम छे. द्रव्यावर्त्त ते (१) स्वामित्व (२) करण (३) अधिकरण ए मां यथा संभव योजवो, नदी विगेरेना स्वामीपणाम कोइ जंग्या जळनुं परिभ्रमण ( गोळाकारे फरबु) थाय ते द्रव्यावर्त, जाणवु अथवा हंस कारंड चक्रवाक विगेरे पक्षी आकाशमां क्रीडा करतां चक्राकारे फरे ते बन्ने स्वामिमां द्रव्योनु आवर्स जागनुं, डव करण आश्रयी कहे छे. ते भमताज जलवडे जे तृण कलिंच विगेरे भये ते द्रव्यावर्त जाण तथा तनुं सीयुं, लोढुं चांदी, सोनुं, गाळतां गाळवानां वाणमां गोळाकारे भये, ते करण, द्रव्यावर्त्त जाणवु' अधिकरणनी विवक्षायां एक जल द्रव्यमां आवर्त छे भने चांदी सोनुं, रेतिका. तर सीमुं एकटा करतां घणां द्रव्योमां आवर्त छे. भावभावर्त नामने एक भावथी बीजा भावमां आवर्त
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सूत्रम् ॥१७४॥