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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth arg Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आ सुप्रनो ३८मां मूत्र साथे तथा पहेला विगेरे मूत्रो साथे प्रथम काया मुनव संबंध कहेवो, पूर्वे कईं के शाता (मुख)ना वांआचाoछको बनस्पति जंतुने निश्चपे दुःख उत्पन्न करे छे. तेथी तेनुं मूळज (कर्मबंध पणे थइने) दुःखथी गहन एवा संसारसागरमां जी-181 वोने भमाडे छे, एवं कडवू फळ जाणनारो कथा वनस्पति कायना जीवाने दुःख देवानी रीतीथी सर्वथा निवृत्त (दर) यवान ॥१७०॥ आत्मामा इच्छे छे. ते बताने छे. वनस्पतिकायने थती पीडाने जाणीने हु हवेथी दुःख नही दर, अथवा ते वनस्पति दुःख देवाना IM॥१७॥ 13 कारण रुप जे छेदन भेदन छे, तेने मन, वचन, कायाथी नहीं करूं, न करावं, करनारने भलो न जाणीव हवे केवी रीते करीश, 11 ते बतावे छे. सर्वज्ञे बनावेला मार्गने अनुसरीने सम्यग् दिक्षाना मार्गने स्वीकारीने बधा पापना आरंभोनो त्याग करतो गको, वनस्पदिने दुःख पाय, तेवा आरंभ नहीं करीश. आथी संयम क्रिया वताची, पथी एम मूचब्यु के एकली क्रियाथीन मोक्ष थाय, एम नही पण ज्ञाने जाणवू, तथा क्रिया ते प्रमाणे करवी, ए चे प्रकारे मोक्ष मळे छ; फायुछे केनाणं किरियारहियं, किरियामेत्तं च दोऽविएगता। न समत्था दाउं जे जम्ममरणदुक्खदाहाई॥१॥ क्रिया रहित एकलुं ज्ञान , अथवा ज्ञान रहित एकली क्रिया, ए बन्ने एकला होय तो जन्ममरणना दुःखोने छेदवा (मोक्ष आपवा) समर्थ नथी.(पण बन्ने साये मळे ताज मोक्ष मळे हे.) जेथी मोक्ष मेळवधामा विशिष्ट कारणभूत ज्ञानज बतावचा कहे छे. जीवोने यथायोग्य मानी (जाणीशुं करे) ते कहे छे. RELA For Private and Personal Use Only
SR No.020008
Book TitleAcharanga Stram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1932
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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