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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir CA- 25 e ___ आ बताचेलं कोणे जाण्यु ते बताये छे, 'वीरेहीत्यादि' मूत्र ३३ थी जाणवू अथवा सारा वक्तादि मसिद्ध थये वाक्यनी :आचा० सिद्धि थाय छे. ते कहे छे सूत्रम् वीरहिं एयं अभिभूय दिटुं, संजएहीं सया जत्तेहिं सया अप्पमत्तेहिं (सू० ३३) ॥१५०॥ ॥१५०॥ घनघाती कर्म समूह दूर करवा साथे तेज वखते केवळ ज्ञानरुप लक्ष्मी प्राप्त करवाथी विशेष प्रकारे राजे छे. तेथी 'वीर' ते | तीर्थकरो छे, ते वीरोए अर्थथी आ देख्यु (मकाश्यु) अने गणधरोए ते सांभळीने सूत्रथी अग्नि शस्त्र देख्यौं भने अशस्त्ररुप संयम देख्यं छे. । प्रश्न-तेओए शुं करी आ प्राप्त कयु ? उत्तर-पराजय करीने, ते पराजय चार प्रकारे छे, नाम स्थापना सुगम छे, द्रव्य पराजय ते शत्रुनी सेना विगेरेनो पराजय करवो अथवा मूर्यना प्रकाशथी चंद्र, ग्रह, नक्षत्र, विगेरेनुं तेज ढंकाइ जाय छे ते. अने भाव अभिभव (पराजय) ते परिषद उपसर्गनो समूह जे शत्रुरूप छे, ते तथा ज्ञान दर्शननु आवरण तथा मोह अने अंतराय ए चार कर्मनु नाश कर ते भाव पराजय छे, परिपह अने उपसर्ग विगेरे सनाने जीतवाथी निर्मळ चारित्र मळे छे. अने चरणनी शुद्धिथी ज्ञान आवरण आदि कर्मनो क्षय याय छे, अने ते कर्मना क्षयथी आवरण रहित कोइ जगोए न हणाय, ते, संपूर्ण जाणवा योग्य पदार्थने जणावनार केवळज्ञान थाय छे, एनो भावार्थ आ छे. के ते वीरोए परिषह, उपसर्ग, तथा ज्ञान दर्शन, आवरणीय मोह अंतराय कर्मने जोतो केवळ ज्ञान प्राप्त कठिाने ते तानवडे ते आप जाण्य केले के आ अग्निकाय पण जीव छे. निगेरे. For Private and Personal Use Only
SR No.020008
Book TitleAcharanga Stram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1932
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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