SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आचा० सूत्रम् ॥१४२॥ ॥१४२॥ | छे, अने तेनुं दृष्टांत आगीआना शरीरनुं परिणाम माफक जाणवू. तेज प्रमाणे आत्माना संपयोग पूर्वक अगारा विगेरेथी गरमी छे. ।। अने ते शरीरमांज रहेला होचायी जणाय छे. जेम तावनी गरमी जीवता शरीरमां छे, तेम अंगारा विगेरेनी गरमी पण जीव शरीरमांज होगी जोइए, एम जाणयु. अहिं सूर्य विगेरेना प्रकाशथी अनेकान्त ( दोपवाळी ) हेतु नथी कारण के वधाओने आत्म-1 प्रयोगपूर्वक उष्ण परिणामर्नु भजवापणुं छे. तेथी अमारो हेतु, अनेकांत नथी पण निर्दोष छे. ___वळी अग्नि सचेतन हे. तेने यथायोग्य आहार मनवायी तेना शरीरनी वृद्धि थइ विकार पामे छे, माटे तेमां विकारपणु छे. जेम पुरुपर्नु शरीर ज्यांसुधी चैतन (सचेतन) होय त्यांमुधी आहारथी वृद्धि पामे छे, आवां लक्षणथी अग्निकायनां जीवो निश्चयथी मानवा, लक्षणद्वार समाप्त. हवे परिमाणद्वार कहे छे, जे बायर पजत्ता पलिअस्स असंखभागमित्ता उ। सेसा तिपिणवि रासी वीसुं लोगा असंखिजा ॥१२०॥ जे बादर पर्याप्ता अग्निकायना जीयो छे, ते क्षेत्रपल्योपमना असंख्येय भाग मात्रमा वर्ती प्रदेश राशीना परिमाणवाला छे, अने ते वादरपृथ्वीकाय पर्याप्ताथी असंख्येय गुणहीन छे, बाकीनी प्रण राशीओ पृथ्वीकायनी माफक जाणवी, पण बादर पृथ्वीकाय अपर्याप्ताथी बादर अग्निकाय अपर्याप्ता असंख्येय गुणहीन छे, अने सूक्ष्म पृथिवीकाय अपर्याप्ताथी मूक्ष्म अग्निकाय अपर्याप्ता विशेष हीन छे. सूक्ष्म पृथिवीकाय पर्याप्ताथी मूक्ष्म अग्निकाय पर्याप्ता बधारे हीन छे. हवे उपभोगद्वार कहे छे. दहणे पग पगामणे य से एयभनकरणे य । वायरतेउक्काए उवभोगग्रणा मणस्साणं ॥ १२१ ॥ RECX * For Private and Personal Use Only
SR No.020008
Book TitleAcharanga Stram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1932
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy