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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra आवा० ॥१४०॥ www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उवावण दो, उड्ढकवाडेंसु तिरियलोयतद्वेष || तेनो अर्थ आ प्रमाणे छे अढी द्वीप वे समुद्रनी बाहल्य (लंबाइ) पूर्व पश्चिम दक्षिण स्वयंभूरमण पर्यंत, आयत (विस्तारवाळा) उर्ध्व अघो लोक प्रमाण कमाड, ते बेनी वचमां रहेला बादर अग्निमां उत्पन्न थतां तेनो व्यपदेश अनिकाय (नाम) पामे छे. तथा तिर्यक लोक प्रमाण थाळीना आकारमा रहेलो बादर अग्निमां उत्पन्न थयेलो बांदर अग्निकायनो व्यपदेश पामे छे. वीजा आचार्य आ प्रमाणे कहे छे, के ते बेनी वचमां रहेलो एटले तिर्यक लोक वत्स्थ तेमां रहेलो उत्पन्न थवानी इच्छावाळो वादर अग्निनो | व्यपदेश पामे छे. आ व्याख्यानमां कमाडनी अंदर रहेलोज लेवो अने ते बन्नेनी उंचा कमाडनी वचमांनो आ कहेवावडे तेज आभ्युं छे. तेथी तेनी व्याख्याना अभिप्रायने अमे समजी शक्ता नथी (आवुं टीकाकार लखे छे.) कवाटनी स्थापना आ प्रमाणे छे' समुद्घातकडे सर्व लोक वर्ती छे. अने पृथिवीकाय विगेरे मारणांतिक समुद्वातबडे मरायला बादर अग्निमां उत्पन्न नारा तेना व्यपदेशने पामनारा सर्व लोकव्यापी होय छे, अहिं ज्यां बादर अग्निकाय पर्याप्ता होय त्यांन बादर अपर्याप्ता होय कारणके | पर्याप्तानी निश्राये अपर्याप्ता उत्पन्न थाय छे. तेथी ए प्रमाणे सूक्ष्म अने बादर पर्याप्ता अने अपर्याप्ताना भेद दरेक बच्चे प्रकारे छे। अने ते वर्ण, रस, गंध, स्पर्शना आदेशवडे हजारो प्रकारना भेदवाळा संख्येययोनि प्रमुख शत सहस्त्र ( लाख ) भेदना परिमाणवाळा होय छे, त्यां तेओनी संकृत, अने उष्ण योनि छे. ते सचित्त अचित्त अने मिश्र, एवा त्रणभेदवाळी छे, अने ए For Private and Personal Use Only सूत्रम ॥१४०॥
SR No.020008
Book TitleAcharanga Stram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShilankacharya
PublisherShravak Hiralal Hansraj
Publication Year1932
Total Pages214
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size5 MB
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