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आचा०
॥ ११८ ॥
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उपभोग द्वार कहे छे पहाणे पिय तह घोयणे य, भत्तकरणे असे ए अ । आउस्स उ परिभोगो गमणागमणे य जीवानं ॥ ११९॥ नहा, पी, घो. गंध, सींचनुं, तथा नाच विगेरेथी जयं आयषु॑ तेमां पाणी काम लागे छे. तेथी सेना भोगना अभिलाषी जीवो आ कारणोने उद्देशीने अपकायना वधमां मवर्ते छे, ते बतावे छे.
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एएहि कारणेहिं हिंसंती आउकाइए जीवे । सायं गवेसमाणा परस्स दुक्खं उदीरंति ॥ ११२ ॥
स्नान, अवगाहन विगेरे कारणो भवत इन्द्रियोना विषयना विषमां मोहित थयेला जीवो निर्दयपणे अपकायना जीवोने | हणे छे. कारण के पोताना सुखनी इच्छा होवाथी पारकाना हित अहितना विचारथी शून्य होवाथी केटलाक दिवसना स्थायी | मनोहर जुबानीना मदथी तपेल चित्तवाळानी सारासार विवेक रहित, तथा विवेकी पुरुषना संसर्ग रहित रहीने पाणी विगेरे जीवोना दुःखने उदीरीने पीडा करे छे. क छेके.:
एकं हि चक्षु रमलं सहजो विवेकस्तद्वद्भिरेव सह संवसतिर्द्वितीयम् एतद्वयं भुवि न यस्य स तत्त्वताऽन्धस्तस्यापमार्गचलने खलु कोऽपराधः ?
जेने स्वभाविक निर्मळ विवेक छे, ते एक चक्षुवाळो कहेवाय छे। अने विवेकवाळा पुरुषनो संग ते मनुष्यने वीजी आंख
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सूत्रम्
॥ ११८ ॥