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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शस्त्रपरिज्ञा नाम प्रथम अध्ययन -पंचमोद्देशकः चतुर्थोद्देशक में अग्निकाय का वर्णन कर चुकने पर इस उद्देशक में क्रम प्राप्त वायुकाय का वर्णन करना चाहिये था परन्त ऐसा न करके वनस्पतिकाय का अधिकार इस उद्देशक में किया गया है। इसका कारण यह है कि वायु चक्षुगोचर नहीं होने से उसके स्वरूप को समझने में शिष्यों को कठिनाई हो सकती है । अतः पहिले सरलता से समझ में आने वाले एकेन्द्रिय पृथ्वी वनस्पति आदि का स्वरूप बताकर अन्त में वायु का स्वरूप कहा जायगा। दूसरी बात यह है कि हलनचलनादि क्रियाओं की अनिवार्यता से संयमी साधक के लिए भी इसका (वायुकाय का) सम्पूर्ण परिहार शक्य नहीं है अतः यह अन्त में रखा गया है: सूत्रकार अनगार श्रमण की व्याख्या बताते हुए फरमाते हैं: तं णो करिस्सामि समुट्ठाए, मत्ता मइमं, अभयं, विदित्ता, तं जे णो करए, एसोवरए; एत्योवरए, एस अणगारेति पवुच्चइ (३६) संस्कृतच्छाया-तन करिष्ये, समुत्थाय मत्वा मतिमन् ! अभयं विदित्वा, तद् यो नो कुर्यात्, एष उपरतः, अत्रोपरतः एष अनगार इति प्रोच्यते । शब्दार्थ-तं णो करिस्सामि-हिंसा नहीं करूंगा । समुट्ठाए दीक्षा (प्रव्रज्या) लेकर । मत्ता-जीवादितत्वों को जानकर । मइमं हे बुद्धिमान् शिष्य । अभयं संयम को । विदित्ता= जानकर । तं जे णो करए जो हिंसा नहीं करता है। एसोवरए हिंसा से निवृत्त हुआ । एत्थोवरए जैन शासन में अनुरक्त हो । एस अणगारोत्ति वह अणगार है ऐसा । पवुच्चइ कहा जाता है। भावार्थ हे बुद्धिमान् शिष्य ! तत्त्वों को जानकर, प्रव्रज्या अंगीकार करके और अभयरूप संयम के स्वरूप को यथार्थरूप से समझकर जो यह संकल्प करता है कि मैं किसी भी प्राणी को पीड़ा न दूंगा और इसी संकल्प के अनुसार किसी को भी पीड़ा नहीं देता है, तथा हिंसा, विषय, कषाय और सांसारिक बन्धनों से विरक्त है और जनशासन में अनुरक्त है वही सच्चा अणगार कहा जाता है । विवेचन-यद्यपि उपरोक्त सूत्र में आरम्भ सामान्य के त्याग का कहा गया है तदपि वनस्पतिकाय के अधिकार में यह कहा गया है अतः जो वनस्पतिकाय आदि के प्रारम्भ का त्याग करता है वह अण For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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