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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir शस्त्रपरिज्ञा नाम प्रथम अध्ययन का -तृतीय उद्देशकः . COM द्वितीयांद्देशक में पृथ्वीकाय की समीक्षा करने के बाद इस उद्देशक में क्रमप्राप्त अपकाय का वर्णन करते हैं। अपकाय की समीक्षा के पहिले पूर्वभूमिका रूप में अनगार की योग्यता स्पष्ट करते हैं। हितोय. देशक के अन्तिम सूत्र में पृथ्वीकाय-समारम्भ से निवृत्त होने वाले को अनगार कहा है किन्तु एतावत अनगार नहीं हो जाता है परन्तु उसमें अन्य गुण भी होने चाहिये। उन गुणों का वर्णन इस उद्देशक के आदि सूत्र में करते हैं । इसी प्रकार 'श्रणगारा मो' हम अणगार है, ऐसा मात्र कथन करने से वास्तविक अनगार-वृत्ति नहीं आ जाती है परन्तु अनगार को तो छोटी छोटी बातों में भी पूर्ण विवेक की आदश्यकता है साथ ही साथ सदा अप्रमत्त (जागृत) रह कर अपनी वृत्तियों के प्रति उसकी सूक्ष्म निरीक्षणबुद्धि होनी चाहिये ताकि छोटी सी भूल भी न हो सके। क्योंकि जरासी भूल के प्रति की गयी उपेक्षा मलपरंपरा को निमंत्रित कर लेती है अतः अनगार वृत्ति के लक्षण सूत्रकार सूत्रद्वारा प्रकट करते हैं: से बेमि, से जहावि अणगारे उज्जुकडे, नियायपडिवगणे, प्रमाणे कुब्वमाणे, वियाहिए, जाए सद्धाए णिक्खंते तमेव अणुपालेजा विजहिता विसोत्तियं ॥१६॥ . संस्कृतच्छाया-उद् बवीमि यथाप्यनगारः ऋजुकृनिकायप्रतिपन्नः अमायं कुर्वाणः, व्यार यया श्रद्धया निष्क्रान्तस्तामेवानुपालयेद् विहाय विस्रोतसिकाम् । शब्दार्थ-से बेमि मैं कहता हूं। से जहावि-वह जिस प्रकार । उज्जुकडे-कुटिलता रहित । णियायपडिवगणे मोक्षमार्ग अंगीकार करता हुआ। अमापं कुब्वमाणे-कपट का निवा रण करते हुए । अणगारे गृह रहित साधु । वियाहिए कहा गया है। जाए सद्वाए जिस' श्रद्धा के साथ । णिक्वंते प्रव्रज्या अंगीकार की है। तमेव उसी श्रद्धा का । विसोतियं शंका को । विजहित्ता छोडकर । अणुपाले जा-यावत् जीवन पालन करे। भावार्थ हे जम्बू ! मैं भगवान् से श्रवण कर यह तुझे कहता हूँ कि-जो जीवन-प्रपंचों को त्याग कर गृहत्यागी अनगार हुआ है, जिसका अन्तःकरणा सरल है, जिसने ज्ञान, दर्शन चारित्र रूप मोक्षमार्ग स्वीकार किया है तथा जिसने छल, दम्भ, कपट का सर्वथा त्याग किया है वही सच्चा अनगार कहा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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