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प्रथम अध्ययन द्वितीय उद्देशक; ]] अच्छि आँख को। भमुहं भौंह को। णिडालं ललाट को। सीसं शीप को। अब्भे २=भेदे छेदे । अप्पेगे संपमारए जैसे कोई मूञ्छित कर दे। अप्पेगे उद्दवए कोई प्राण रहित कर दे।
___ भावार्थः-कर्ण, नासिक दि रहित पृथ्वीकय के जीव वेदना कैसे अनुभव करते हैं ऐसा पूछने पर भगवान् फरमाते हैं कि जसे जन्म से अंधे, बहिरे, लूले लंगड़े तथा अवयवहीन किसी व्यक्ति के कोई भालादि द्वारा पांव, टकने, पिण्डी, घुटने, जंघा, कमर, नाभि, पेट, पांसली,पीठ, छाती, हृदय, स्तन, कंधा, भुजा, हाथ, अगुलि, नख, गर्दन, दाढी, होठ, दांत, जीभ, तालु, गाल, कान, नाक, आंख, भौंह, ललाट, मस्तक इत्यादि अवयव छेदे भेदे तो उस अंधबधिर को वेदना होती है किन्तु वह व्यक्त नहीं कर सकता है । इसी प्रकार एकेन्द्रिय पृथ्वीकाय के जीवों को अव्यक्त वेदना होती है। जैसे कोई किसी मनुष्य पर सहसा प्रहार कर उसे मूर्छित करके फिर मार डाले तो मूविस्था में उसे पीड़ा होती है वैसे ही पृथ्वीकाय की वेदना समझनी चाहिये ।
विवेचन-हिंसा से मार्यमाण जन्तुओं को जो वेदना होती है, वह प्रायः करके कई बार अव्यक्त हुश्रा करती है तो भी हिंसक भावना आजाने से हिंसक का पतन तो अवश्यंभावी है । तात्पर्य यह है कि चाहे वेदना व्यक्त हो या अव्यक्त किन्तु हिंसक परिणामों के कारण हिंसा करने वाले का पतन तो होता ही है।
एत्थ सत्यं समारंभमाणस्स इच्चेते प्रारंभा अपरिणाया भवंति, एत्य सत्यं असमारंभमाणस्स इच्चेते प्रारंभा परिगणाता भवंति ॥१७॥
संस्कृतच्छाया-अत्र शस्त्रं समारभमाणस्य, इत्येते आरम्भाः अपरिज्ञाताः भवन्ति, अत्र शस्त्रमसमारभमाणस्य इत्येते प्रारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति ।
शब्दार्थ-एत्थ=पृथ्वीकाय में । सत्थं समारंभमाणस्य-शस्त्र का समारंभ करने वाले के लिए। इच्छेते ये उपरोक्त। आरम्भा प्रारम्भ के भेद। अपरिगणाया-अज्ञात। भवंति होते हैं। एत्थ यहाँ, पृथ्वीकाय में । सत्थं असमारंभमाणस्स-शस्त्र का आरंभ नहीं करने वाले के लिए। इच्छेते ये उपरोक्त । आरम्भा हिंसक कार्य । परिणाया-ज्ञात । भवंति होते हैं। __भावार्थ-जो जीव हिंसा की प्रवृत्ति करते हैं उन्हें अपनी हिंसक वृत्ति का भान भी नहीं होता। अतः वे उसका त्याग भी नहीं करते हैं इसलिए हिंसाजन्य पाप उन्हें लगता रहता है। जो जीव अहिंसक वत्तिवाले हैं वे सूक्ष्म या स्थूल शस्त्रों का प्रयोग नहीं करते हैं अतः वे हिंसा के भेदों को समझ कर विवेक-युक्त उनका त्याग करते हैं ।
विवेचन-जिस वृत्ति का मन पर सतत असर होता है वह वृत्ति बाद में प्रादतरूप हो जाती है। ऐसा होने पर प्राणी को उसके अच्छे बुरे का विवेक और भान ही नहीं होता है इसलिये वह चिरकाल तक उसी वृत्ति में रहता हुआ अनर्थ की परम्परा को निमंत्रण देता रहता है अतएव इससे बचने के लिये हमेशा अपनी वृत्तियाँ शुद्ध रखनी चाहिये ।
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