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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir . प्रथम अध्ययन द्वितीय उद्देशक; ] [ ४३ संस्कृतच्छाया-अनगाराः म्मः इत्येके प्रवदन्तः यदिमं पृथिवीकार्य विरूपरूपैः शनैः पृथिवीकर्मसमारम्भेण पृथिवीशस्त्रं समारभमाणो ऽन्याननेकरूपान् प्राणान् हिनस्ति । - शब्दार्थ-अणगारा मो हम घरबार रहित भिक्षुक हैं। त्ति ऐसा। एगे-कितनेक साधु । पवयमाणा-अभिमान पूर्वक कहते हैं । जमिणं इस पृथ्वीकाय को। विरूवरूवेहि अनेक प्रकार के । सत्थेहि-शस्त्रों द्वारा । पुढविकम्मसमारंभेणं पृथ्वी सम्बन्धी क्रिया का आरम्भ करने से । पुढविसत्यं पृथ्वीकाय के शस्त्र का । समारंभेमाणा=प्रयोग करते हुए । अएणे अन्य।अणेग-- रूवे-जाना प्रकार के । पाणे वनस्पति आदि प्राणियों की । विहिंसइ हिंसा करते हैं। ___ भावार्थ-कितनेक यति एवं त्यागी नाम धराने वाले ऐसा अभिमानपूर्वक कहते हैं कि हम घरबार छोड़कर जीवों की रक्षा के लिए साधु बने हैं। परन्तु वे ही अनगार कहलाने वाले अनेक प्रकार के शस्त्रों द्वारा, पृथ्वीकाय सम्बन्धी पापकर्म करते हुए पृथ्वीकाय के जीवों की विराधना करते हैं और साथ ही पृथ्वी के आश्रित रहे हुए वनस्पति एवं त्रस आदि जीवों की भी हिंसा करते हैं । अतः उनका ऐसा कहना मात्र बकवाद है। विवेचन-इस सूत्र से यह फलित होता है कि सूत्रकार उसे ही सच्चा अनगार समझते हैं जो स्वेच्छा पूर्वक सूक्ष्म से सूक्ष्म प्राणी को भी मनसा, वाचा, कमणा किसी प्रकार का दुख नहीं पहुँचाता हो। जैन शास्त्रकारों का यह फरमान है कि अनगार का जीवन एकदम शुद्ध एवं निरासक्त होना चाहिये । अतः अनगारों एवं यथासम्भव गृहस्थों के लिए भी यह आवश्यक है कि पृथ्वीकाय की विराधना न करें। इस प्रकार शाक्यादि अन्य दर्शनावलम्बी यति एवं भिनुक पृथ्वीकाय आदि जीवों की यतना नहीं करते हैं यह बताकर शास्त्रकार आगे यह प्रतिपादन करते हैं कि यह हिंसा अहित करने वाली एवं अबोध (मिथ्यात्व) का कारण है: तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया । इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदणमाणणपूयणाए, जाइमरणमोयणाए, दुक्खपडिघायहेऊं, से सयमेव पुढविसत्थं समारम्भइ, अण्णेहि पुढविसत्थं समारम्भावेइ, अण्णे वा पुढविसत्थं समारंभंते समणुजाणइ, तं से अहियाए, तं से अबोहिए (१४) संस्कृतच्छाया-तत्र खल भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । अस्य चेव जीवितस्य परिवन्दनमाननपूजनार्थ जातिमरणमोचनार्थ दुःखप्रतिघातहेतुं स स्वयमेव पृथिवीशस्त्रं समारभते अन्यैश्च पृथिवीशस्त्रं समारम्भयति, अन्यान्या पृथिवीशस्त्रं समारभमाणान्समनुजानीते तत्तस्य अहिताय तत्तस्य अबोधिलाभाय । शब्दार्थ-तत्थ इस पृथ्वीकाय समारम्भ में । खलु वाक्यालंकारार्थ। भगवया= भगवान महावीर ने। परिगणा=परिज्ञा (विवेक)। पर्वइया बतलायी है। इमस्स चेव इसी। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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