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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir चवणथंडिलदवित्रदीहलोगसत्थ नियाणपगप्पपडिलेहणपमजणपरिराणापरिट्ठवणपरिसवपरीसहपारिहारिअफासुयबालमूलट्ठाणराइणियलेस्सा [ ] देवादि की मृत्यु को 'च्यवन' कहा जाता है। अचित्त भूमि को या त्याज्य वस्तुओं को त्यागने की भूमि को स्थण्डिल कहते हैं। कों को द्रवीभूत करने के कारण संयम को द्रव कहते हैं । संयमी को 'द्रविक' कहते हैं। पृथ्वी, जल आदि की अपेक्षा वनस्पति की आयु और शरीर की ऊँचाई अधिक है इसलिए वनस्पति को दीर्घलोक कहते हैं । उसका शस्त्र अग्नि है वह दीर्घलोक शस्त्र है। सांसारिक फल की इच्छा करना 'निदान' कहा जाता है। आचार या अनुष्ठान विशेष को प्रकल्प कहते हैं। साधु के उपकरणों में 'जन्तु तो नहीं है। इस भावना से विवेकपूर्वक उनको देखना । रजोहरण आदि से श्रासन, भूमि आदि को साफ करना । वस्तु के स्वरूप को जानकर हेय पदार्थों का परित्याग करना परिज्ञा है। मल-मूत्रादि त्याज्य वस्तु को विवेकपूर्वक त्यागना । आत्मा के साथ लगे हुए कर्मों का अंश से दूर होना-निर्जरा या परिस्रव है। साधुओं के कष्टों को परीषह कहते हैं। उत्कृष्ट आचार वाला साधु 'पारिहारिक' कहा जाता है। निर्जीव और साधु-साध्वी के लिए कल्पनीय वस्तु को 'प्रासुक' कहते हैं। सद् असत् के विवेक से शून्य और रागादि मोहित व्यक्ति को 'बाल' कहते हैं। संसार के मूलभूत कारण-कषायों के आश्रय को 'मूलस्थान' कहते है। ज्ञान, दर्शन और चारित्रादि गुणों में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ साधु को 'रानिक' कहते हैं।। अध्यवसाय या विचारों को सामान्यतया लेश्या कहा जाता है। योग के निमित्त से होने वाले आत्मा के शुभाशुभ अध्यवसाय को लेश्या कहते हैं। कमों को दूर करने वाला होने से संयम को विनय भी कहते हैं। धर्मक्रिया के फल के विषय में शंकाशील होना। शीत-उष्ण आदि शस्त्र से विकार को प्राप्त हुआ प्रासुक आहार पानी। जिन-वचन में शंका करना अथवा मोक्षमार्ग के प्रतिकूल विचार और आचरण करना।। पूर्वापर विमर्शरूप विशेष प्रकार के ज्ञान को संज्ञा कहते हैं। जातिस्मरण ज्ञान, जिसके द्वारा पूर्वभव का ज्ञान होता है । अथवा अवधि मनः पर्याय और केवलज्ञान को सन्मति कहते हैं। सत्यदृष्टि वाला या सबको समदृष्टि से देखने वाला। जिसके द्वारा जीव संसार में फँसते हैं वह कर्म 'संग' कहा जाता है। साधु-साध्वी के ठहरने योग्य स्थान को 'शय्या कहते हैं। विणयवितिगिच्छावियडविसोतियासराणासम्मइ सम्मत्तदंसी-- संगसिजा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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