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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ६०२ ] [आचाराग-सूत्रम् अदु कुचरा उवचरन्ति गामरक्खा य सत्तिहत्था य। अदु गामिया उवसग्गा इत्थी एगइया पुरिसा य ॥८॥ संस्कृतच्छाया-निद्रामपि नो प्रकामतः सेवते भगवानुत्थाय । जागरयति चात्मानमीषच्छायी चाप्रतिक्षः ॥५॥ संबुध्यमानः पुनरपि स्थितवान् भगवानुत्थाय । निष्क्रम्यैकदा रात्री बहिश्चक्रम्य मुहूर्तकम् ॥६॥ शयनेषु तत्रोपसर्गाः भीमा आसन्ननेकरूपाश्च । संसर्पकाश्च ये प्राणिनोऽथवा ये पक्षिणः उपचति ।।७।। अथ कुचरा उपचरंति ग्रामरक्षाश्च शक्तिहस्ताश्च । अथ ग्रामिका उपसर्गाः स्त्रियः एकाकिनः पुरुषाश्च ।।८।। शब्दार्थ-भगवं-भगवान् । पगामाए अधिक। णिपि नो सेवइ-निद्रा भी नहीं लेते थे। उट्ठाए-उत्थित होकर । अप्पाणं जग्गावइ-आत्मा को जागृत करते थे । इसिं साई य% उनका अल्प-शयन भी। अपडिन्ने प्रतिज्ञारहित था अर्थात्-सोने के लिए नहीं सोते थे ॥॥ संबुज्झमाणे-प्रमाद को संसार-पात का कारण समझकर अप्रमत्त रहते हुए भी (नींद आने लगती तो) पुणरवि-पुनः । भगवं भगवान् । उठाए आसिंसु-सीधे तनकर बैठते । एगया कभी । राम्रो रात्रि में | बहि निक्खम्म बाहर निकलकर । मुहुत्तागं-मुहूत्ते तक । चंकमिया भ्रमण करते थे ॥६॥ तत्थ सयणेहिं इन स्थानों में रहते हुए । अणेगरूवा-नाना प्रकार के । भीमा-भयंकर । उवसग्गा पासी-उपसर्ग आते थे। जे य संसप्पगा पाणा जो सपे, नकुल आदि सरकने वाले प्राणी हैं । अदुवा अथवा । जे पक्खिणो-जो गिद्ध आदि पक्षी हैं वे । उवचरन्ति-उपसर्ग देते थे ॥७॥ अदुवा अथवा । कुचरा-कुत्सित पाचरण वाले जार चोर आदि। उवचरन्ति-उपसर्ग देते थे। सत्तिहत्था शस्त्र हाथ में रखने वाले । गामरक्खाग्रामरक्षक पुलिस आदि उपसर्ग देते थे। एगइया एकाकी भगवान् को। इत्थी पुरिसा य=स्त्रियाँ और पुरुष । गामिया उवसग्गा-विषयाश्रित उपसर्ग देते थे ॥८॥ भावार्थ-साधक अवस्था में भी अप्रमत्त होकर विचरने के कारण भगवान् अधिक नींद नहीं लेते थे । (बारह वर्ष के सुदीर्व तपश्चरण काल में अस्थिक ग्राम में व्यन्तर के उपसर्ग के पश्चात् कायोत्सर्ग अवस्था में ही अन्तमुहूर्त तक केवल एक बार निद्रा प्रमाद का सेवन किया था परन्तु शीघ्र ही अपने आपको उन्होंने जागृत कर लिया था) कदाचित् निद्रा आने लगती तो वे उत्थित होकर आत्मा को जागृत करते थे । “अब मैं सो जाऊँ' इस भाव से भगवान् ने कभी शयन नहीं किया ॥५॥ प्रमाद पतन का कारण है यह जानकर भगवान् सविशेष जागृत रहते थे फिर भी कदाचित् निद्रा आने लगती तो उठकर For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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