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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५६८] [आचाराङ्ग-सूत्रम् मात्राशोऽशनपानस्य नानुगृद्धो रसेष्वप्रतिशः । अक्ष्यपि नो प्रमाजयेनापि च कण्डूयते मुनिर्गात्रम् ॥२०॥ शब्दार्थ-अहाकडं अपने लिए बनाये हुए--प्राधाकर्मी आहार का। से वह भगवान् । न सेवे सेवन नहीं करते थे । सव्वसो सब प्रकार से। कम्म अदक्खु-कर्म का बन्धन जाना था। जं किंचि पावगं जो कुछ भी पाप का कारण था । तं-उसको । अकुव्वं-नहीं करते हुए । भगवं=भगवान् । वियर्ड-प्रासुक । भुञ्जित्था आहार करते थे ॥१८॥ परवत्थं परवस्त्र का। णो सेवइ-सेवन नहीं करते थे। से वह । परपाए वि-परपात्र में भी। न भुञ्जित्था= भोजन नहीं करते थे। उमाणं-अपमान का । परिवजियाण=विचार छोड़कर। असरणाए अदीन होकर । संखडिं-भोजनशालाओं में । गच्छद जाते थे ॥१६॥ असणपाणस्स आहार पानी की। मायएणे मात्रा को जानते थे। रसेसु-रसों में। नाणुगिद्धे आसक्ति नहीं रखते । अपडिने रसीले पदार्थों को ग्रहण करने की प्रतिज्ञा नहीं करते। अच्छिपि आँख को भी । न पमाजिजा= धूल आदि दूर करने के लिए नहीं पोंछते थे। मुणी चे मुनि । गायं शरीर को । नो वि य कण्ड्य ए-खुजाते भी नहीं थे ॥२०॥ भावार्थ-भगवान अपने निमित्त बनाये हुए भोजन आदि का सेवन नहीं करते थे क्योंकि ऐसा करने में सब प्रकार के कर्मों का आस्रव होता है ऐसा उन्होंने जाना था । जो कुछ भी पाप का कारण होता उसको नहीं करते हुए भगवान् निर्दोष अन्नपानी का ही सेवन करते थे । (तात्पर्य यह है कि भगवान् ने साधक अवस्था में भी किसी प्रकार के दोष का सेवन नहीं किया ) ॥१८॥ भगवान् पर-वस्त्र* का सेवन नहीं करते थे और पर-पात्र में भोजन नहीं करते थे । वे अपमान का विचार न करते हुए अदीनभाव से भोजन-स्थानों में भिक्षा के लिए जाते थे ॥१॥ भगवान् आहार-पानी ग्रहण करने के परिमाण के ज्ञाता थे । वे दूध-दही आदि रसों में आसक्ति नहीं रखते थे । वे रस वाले पदार्थों को ही लेने की प्रतिज्ञा नहीं करते थे । अांख में रज आदि गिर जाने पर भी उसे पोंछते नहीं थे और वे मुनि खुजली श्राने पर भी शरीर को खुजाते नहीं थे ॥२०॥ अप्पं तिरियं पेहाए अप्पं पिट्टनो पेहाए । अप्पं बुइएऽपडिभाणी पंथपेही चरे जयमाणे ॥२१॥ *पर-धन का अर्थ टीकाकार ने-"प्रधानं वस्त्रं परस्य वा वस्त्रं" ऐसा किया है। अर्थात् भगवान् उत्तम वस्त्र या दूसरे का वस्त्र काम में न लाते थे। इसका अर्थ यह नहीं कि वे साधारण वस्त्र या अपना वस्त्र काम में लाते थे । इसका तात्पर्य इतना ही मालूम होता है कि वस्ती में गोचरी के लिए जाने पर कोई गृहस्थ वस्त्र देता तो नहीं लेते थे। पात्र न रखने के कारण गृहस्थ अगर अपने पात्र में आहार देता तो उसमें जीमते नहीं थे। मतलब यह है कि भगवान् न गृहस्थ का दिया हुश्रा वस्त्र काम में लेते थे और न गृहस्थ के पात्र में भोजन करते थे। उनके पास अपना यत्र या पात्र तो था नहीं। वे अचेलक और पाणिपात्र थे। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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