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अष्टम अध्ययन अष्टम उद्देशक ]
[५६१ -
एकाग्र करते हुए, लक्ष्यपूर्वक, जीवों की यतना करते हुए गमन करना चाहिए। ईर्यासमितिपूर्वक गमन करने से अप्रमत्तभाव की वृद्धि होती है और सतत जागरुकता बनी रहती है।
भगवान को इस प्रकार उपयोगपूर्वक चलते हुए देखकर कई अनार्य और बे-समझ व्यक्ति भगवान को शंका की और कुतूहल की दृष्टि से देखते थे। कई बालक भगवान को नग्न, मुण्डित और धीरे २ चलते हुए देखकर डर जाते अथवा कुतूहलवश होकर भगवान् पर धूल की मुट्ठियाँ भर-भर कर फेंकते थे तथा हो-हल्ला मचाते थे । वे चिल्लाते थे कि अरे देखो ! यह नंगा कौन है ? कहाँ से आया है ? यह कोई जादूगर तो नहीं है ? इस प्रकार वे बालक एकत्रित होकर चिल्लाते थे। मगर भगवान तो अपने कर्त्तव्य में लगे रहते । वे इन लोगों के व्यवहार पर तनिक भी ध्यान नहीं देते और सब कुछ सहन कर लेते थे।
उपयोगपूर्वक विहार करते हुए भगवान को कभी गृहस्थों के संसर्ग वाले स्थानों पर भी रहना पड़ता था। उन स्थानों में विविध प्रकृति के स्त्री-पुरुषों का सम्पर्क रहता था । भगवान के स्वाभाविक सौन्दर्य से मुग्ध होकर कई स्त्रियाँ भोग की याचना करती थीं मगर भगवान् तनिक भी विचलित नहीं होते थे। प्रबल पवन के चलने पर भी मेरु कभी चलायमान नहीं होता इसी तरह विविध रूपवती स्त्रियों के भोग की याचना करने पर भी भगवान रोममात्र से भी विचलित नहीं हुए। जिनके मन में वैराग्य की लौ लगी हुई है वे स्त्रियों के वश में नहीं हो सकते । भगवान ने स्त्री के प्रति मोह को शुभमार्ग में अर्गला की भांति समझ कर त्याग कर दिया था इसलिए अनुकूल परिस्थिति में भी भगवान ने कभी मैथुन का सेवन नहीं किया । स्त्रियों के प्रति मोह और आसक्ति को प्रात्म-स्वरूप की प्राप्ति का प्रबलतर बाधक कारण जानकर और उसे प्रत्याख्यान-परिज्ञा से छोड़कर भगवान् अपने आपको वैराग्य-मार्ग में लगाये रहते थे। वे सदा शुभ ध्यान में लीन रहते थे। साधकों को चाहिए कि वे अपने मन को विषयों की ओर न जाने देने के लिए उसे सदा शुभ प्रवृत्ति में लगाये रहे । विषयों के प्रभाव से बचने का यह सरल उपाय है।
प्रामानुग्राम विहार करते हुए भगवान् को गृहस्थों के सम्पर्क में भी आना पड़ता था मगर भगवान् कभी उनमें घुलते-मिलते नहीं थे। सम्पक में आने पर भी वे अलिप्त-से रहते थे। जैसे जल के सम्पर्क में रहते हुए भी कमल जल से लिप्त नहीं होता है इसी प्रकार भगवान गृहस्थों का कदाचित् सम्पर्क होने पर भी अपनी वैराग्यवृत्ति के कारण उनसे अलिप्त रहते थे। वे तो उदासीन-से होकर धर्म-शुक्ल ध्यान में लीन रहते थे। भगवान मौन रहकर साधना करते थे। कभी कोई गृहस्थ कुछ पूछता तो भी वे उसका उत्तर नहीं देते थे। उत्तर नहीं पाने के कारण वह गृहस्थ किसी प्रकार के चोर आदि की शंका करता या ऋद्ध होकर संताप देता तो भी भगवान् सब सहन कर लेते थे मगर उत्तर नहीं देते थे । भगवान् अपने काम से काम रखते हुए अपने निर्धारित मार्ग पर चला करते थे। वे संयम का अनुष्ठान करने वाले भगवान कभी मोक्षपथ का उल्लंघन नहीं करते थे । चाहे जैसी सम या विषम परिस्थिति में भी वे धर्मध्यान
और शुक्लध्यान में लीन रहते थे। उन्होंने अपने आपको ऐसा दृढ़ और मजबूत बना लिया था कि उन पर सम-विषम परिस्थिति का मानों कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता था। इस प्रकार भगवान् दृढ़ता के साथ परीषह और उपसर्गों में भी सब प्रकार की समतोलता को कायम रखते हुए साधना के मार्ग में आगे बढ़ते जाते थे।
नागार्जुनीय वाचना में 'पुट्ठो वि नाभिभासिंसु' आदि के स्थान पर "पुट्ठो व सो अपुट्टोव को अणुनाइ पावगं भगवं" ऐसा पाठ है । इम्का अर्थ है कि गृहस्थों के पूछने पर या नहीं पूछने पर या नहीं पूछने पर भगवान सावध कार्य की अनुमति नहीं देते थे।
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