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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir नवम अध्ययन प्रथम उद्देशक ] जिस प्रकार मलिन वस्त्र जल श्रादि द्रव्यों से शुद्ध हो जाता है इसी प्रकार भाव-उपधान से पाठ प्रकार के कर्म नष्ट हो जाते हैं और आत्मा शुद्ध-निर्मल हो जाता है । नियुक्तिकार ने भाव-उपधान से होने वाले कर्म-विनाश की विभिन्न पर्यायों का निम्न गाथा में संकलन किया है: अोधूणण धुणण नासण विणासण झवण रावण सोहिकरं। छेगण भेयण फेडण डहणं धुवणं च कम्माण ॥ यह भाव-उपधान कर्मप्रन्थि को अपूर्वकरण से भेदने वाला, अनिवर्तिकरण से सम्यक्त्व में स्थापन करने वाला, कर्मप्रकृति को स्तिबुक-संक्रमण से अन्य प्रकृति के रूप में बदलने वाला, शैलेशी अवस्था में कर्मों का सर्वथा अभाव करने वाला, उपशम श्रेणी में कर्मों के उदय को रोकने वाला, क्षपक श्रेणी में क्षय करने वाला, शुद्धि करने वाला, कर्मस्थिति का छेदन करने वाला, बादरसम्पराय अवस्था में सज्वलन लोभ का भेदन करने वाला, चतुःस्थितिक अशुभ प्रकृति को रसादि से त्रिस्थानिकादि करने वाला, केवलिसमुद्घात से दग्धरज्जुतुल्य करने वाला और अशुभ कर्मों को सर्वथा धो डालने वाला है । प्रायः यह सब कर्म-विनाश की अवस्थाएँ उपशम श्रेणी, क्षपक श्रेणी, केवलिसमुद्घात और शैलेशी अवस्था के कारण होने वाली हैं । तात्पर्य यह है कि यह उपधान कर्मों का क्षय करने वाला है अतएव इसमें सदा प्रयत्नशील होना चाहिए । उपधान के आचरण पर भार देते हुए नियुक्तिकार ने कहा है: तित्थयरो चउनाणी सुरमहिओ सिज्झियव्वय धुवम्मि । अणिगृहियबलविरिओ तवोविहाणम्मि उजमइ ॥ किं पुण अवसेसेहिं दुक्खक्खयकारणा सुविहिएहिं । होइ न उजमियव्वं सपञ्चवायम्मि माणुस्से ? ॥ तीर्थक्कर, चारज्ञान के धारक, देवताओं से पूजित और निश्चित सिद्ध होने वाले भी अपने बलवीर्य का गोपन नहीं करते हुए तपः कर्म में प्रयत्नशील होते हैं तो शेष बुद्धिमानों को अनेक विघ्न-बाधाओं से पूर्ण मनुष्य जीवन में कर्म का क्षय करने के लिए क्यों प्रयत्नशील नहीं होना चाहिए ? अर्थात् कर्मक्षय के लिए अवश्य ही उद्यम करना चाहिए । वीरवर वर्द्धमान स्वामी ने इस तपःकर्म का आचरण किया है। इसका आचरण करने वाले अन्य धीर-वीर भी शाश्वत निर्वाण को प्राप्त करते हैं। अब भगवान् के आदर्श तपोमय जीवन का वर्णन करते हुए सूत्रकार कहते हैं: अहासुयं वइस्सामि जहा से समणे भगवं उठाए। संखाए तंसि हेमन्ते अहुणो पब्वइए रीइत्था ॥१॥ णो चेविमेण वत्थेण पिहिस्सामि तंसि हेमन्ते । से पारए श्रावकहाए एवं खु अणुधम्मियं तस्स ॥२॥ For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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