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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra अष्टम अध्ययन अष्टम उद्देशक ] www.kobatirth.org संस्कृतच्छाया1- श्रयं चायततरः स्यात् यो एवमनुपालयेत् । सर्वगात्रनिरोधेऽपि स्थानान्न व्युद्भ्रमेत् ॥ १६॥ अयं स उत्तमो धर्मः, पूर्वस्थानस्य प्रग्रहः । चिरं प्रत्युपेक्ष्य विहरेत् तिष्ठेत् माहनः ||२०|| Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [ ५७ 1 शब्दार्थ - श्रयं यह पादपोपगमन । श्राययतरे = विशेष महत्व वाला | सिया-होता है | जो=जो मुनि | एवम्=इस विधि से । श्रणुपालए पालन करता है वह । सव्वगायनिरोहेऽवि== सारे शरीर में तीव्र वेदना होने पर भी । ठाणाओ = उस स्थान से । न विउब्भमे = चलित नहीं होता है ||१६|| से अयं =यह । उत्तमे धम्मे= उत्तम धर्म है । पुच्वट्टास्स = पूर्व कहे हुए दोनों स्थानों की अपेक्षा | पग्गहे=अधिक प्रयत्न से ग्राह्य है । अचिरं = योग्य भूमि को | पडिलेहित्ता= देखकर | माहणे = मुनि | विहरे = पादपोपगमन की विधि का पालन करे। चिट्ठे=उसी स्थान पर रहे | २०| भावार्थ- यह पादपोपगमन पूर्वोक्त भक्तपरिज्ञा और इंगितमरण की अपेक्षा विशेष महत्व वाला है । जो मुनि पूर्वोक्त विधि से इसका पालन करता है वह सारे शरीर में तीव्र वेदना होने पर भी उस स्थान से नहीं हटता है ॥ १९ ॥ यह पादपोपगमन उत्तम धर्म है । पूर्वोक्त दोनों मरणों की अपेक्षा अधिक प्रयत्न से ग्राह्य है। मुनि निर्दोष भूमि को देखकर पादपोपगमन की विधि का पालन करे और चाहे जैसी परिस्थिति में भी स्थानान्तर न करे ||२०|| विवेचन - भक्तपरिज्ञा और इङ्गितमरण के पश्चात् पादपोपगमन का निरूपण इन गाथाओं में किया गया है। यह तीसरा मग्ण पूर्वोक्त दो मरणों की अपेक्षा विशेष महत्त्व वाला है और विशेष प्रयत्नसाध्य है । इसे ग्रहण करने में पूर्वोक्त दो मरणों की अपेक्षा प्रबलतर सामर्थ्य की अपेक्षा रहती है। इस मरण में पूर्व की सारी विधि तो करनी ही होती है परन्तु विशेषता यह है कि इसमें हलन चलन का भी निरोध कर दिया जाता है। दीक्षा शिक्षा आदि सारी बातें पूर्वोक्त मरण के अनुसार ही हैं, हलन चलन को रोककर वृक्ष की तरह स्थिर हो जाना इसकी विशेषता है । जिस स्थान पर, जिस श्रासन से पादपोपगमन विधि अंगीकार की है उसको किसी भी परिस्थिति छोड़ यह विधि का मुख्य आचार है। चाहे सारे शरीर में तीव्र वेदना हो, शरीर जल रहा हो, या मूर्छा आ गई हो, मारणान्तिक कष्ट हो रहा हो, सिंह, सर्प, गिद्ध, कीड़ी आदि शरीर का मांसरक्त खा-पी रहे हों और भयंकर से भयंकर परिस्थिति हो तो भी वह साधक उस स्थान से और उस श्रासन से चलायमान नहीं होता । जलने पर, काटे जाने पर, छेदे भेदे जाने पर या और विषम परिस्थिति आने पर भी चिलातपुत्र की तरह वह साधक उस स्थान का परित्याग नहीं करता । उस स्थान से जरा भी • विचलित नहीं होता और अध्यवसायों से भी चलायमान नहीं होता । For Private And Personal पूर्वोक्त दो विधियों में हलन चलन की छूट होती है और इसमें इसका भी निषेध होता है इसलिए यह विशेष प्रयत्न से ग्राह्य है। इसका श्राराधन करने वाला साधक पूर्वोक्त विधि से ही स्थानादि का प्रत्युपेक्षण करे और उसी विधि के अनुसार सब कार्य करके अच्छिन्नमूल वृक्ष की तरह निश्चेष्ट और निष्क्रिय
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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