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[अाचाराग-सूत्रम्
..भावार्थ-कोई मुनि इस प्रकार. अमिग्रह धारण करता है कि में भोजन-पानी आदि की गवेषणा, करके अन्य मुनियों को दूंगा और उनका लाया हुआ मैं उपयोग में लूँगा १। कोई मुनि ऐसा अभिग्रह करता है कि मैं भोजन-पानी लाकर अन्य मुनियों को दूंगा परन्तु उनका लाया हुआ काम में न लूँगा । कोई मुनि ऐसा विचार करता है कि मैं भोजन-पानी की गवेषणा करके अन्य मुनियों को न दूंगा किन्तु दसरे मुनियों का लाया हुआ उपयोग में लूँगा ३ । किसी मुनि को ऐसा अभिग्रह होता है कि भोजनादि की गवेषणा करके मैं किसी दूसरे मुनि को नहीं दूंगा और मैं भी दूसरे के लाये हुए आहार दि का उपयोग नहीं करूँगा ४ । कोई मुनि इस प्रकार का अभिग्रह धारण करता है कि मैं अपने उपभोग के पश्चात् शेष रहे हुए, विधिपूर्वक ग्रहण किये हुए और अपने लिए स्वीकृत किए हुए आहारादि से निर्मरा की, अभिलाषा से समान समाचारी वाले मुनि का वैयावृत्य करूँगा और मैं भी उनके बचे हुए, विधि से लाए. हुए और यथापरिग्रहीत आहार-पानी को उनके द्वारा निर्जरा की इच्छा से वैयावृत्य के हेतु दिये जाने पर महण करूँगा । इस प्रकार के अभिग्रह धारण करने वाले मुनि में निरभिमानता आती है अथवा वह कर्म-भार से हल्का हो जाता है । उसे तपस्या का लाभ होता है। अतः सम्पूर्ण आचार को जानकर उसका पूर्णरूप से पालन करे।
विवेचन-इस सूत्र में विभिन्न २ प्रतिज्ञाओं का रूप बताया गया है। कोई साधक ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि मैं दूसरों की सेवा भी करूँगा और दूसरों के द्वारा की जाने वाली सेवा को भी स्वीकार करुंगा। कोई साधक ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि मैं दूसरों की सेवा करूँगा परन्तु दूसरों की सेवा स्वीकार नहीं करेगा। कोई साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं दूसरों की सेवा नहीं करूंगा किन्तु उनकी सेवा को स्वीकार करुंगा और कोई साधक ऐसी भी प्रतिज्ञा करता है कि मैं न तो दूसरों की सेवा ही करूँगा और ने दूसरों की सेवा ही स्वीकार करूँगा। यह चतुर्भङ्गी सूत्र में दिखाई गई है। प्रतिमाधारी साधक उक्त चार भङ्गों में से किसी भी तरह की प्रतिज्ञा ग्रहण करता है।
उक्त प्रतिज्ञाओं के स्वरूप को देखने से यह प्रतीत होता है कि सेवा और स्वालम्बन मुनि-धर्म के प्रबल पोषक गुण हैं। जो मुनि दूसरे मुनियों की सेवा के लिए अपना तन-मन अर्पण कर देते हैं वे भी साधना के मार्ग में सफल होते हैं और जो मुनि दूसरों की अपेक्षा न रखते हुए अपने आप पर अवलम्बित होते हैं वे भी साधना में सफलता प्राप्त करते हैं । उक्त प्रतिज्ञाओं के सम्बन्ध में पहले पर्याप्त विवेचन किया जा चुका है। अतः पुनः पिष्टपेषण नहीं किया जाता। .
। उक्त चतुर्भजी के आदि के तीन भंगों में से कोई साधक एक पद से ही अभिग्रह ग्रहण करता है। वह इस प्रकार है:-कोई साधक यह प्रतिज्ञा करता है कि प्रतिमाधारियों के प्राचार-कल्प के अनुसार एषणीय, अपने लिए स्वीकार किये हुए और स्वयं के परिभोग के पश्चात् बचे हुए आहारादि से अपने सहधर्मी अन्य प्रतिमाधारियों की सेवा करूँगा। कोई साधक यह अभिग्रह करता है कि अन्य मुनि इस तरह आहारादि से मेरी सेवा करना चाहेंगे तो मैं उसे स्वीकार करूँगा । अथवा अन्य साधर्मिक अन्य किसी साधर्मिक की सेवा करेगा तो मैं मन, वचन और काया से उसका अनुमोदन करूंगा। :
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