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[श्राचारान-मूत्रम्
शब्दार्थ-जस्स सं भिक्खुस्स-जिस साधु को। एवं भवइ=ऐसा मालूम हो कि । अहं खलु=मैं । इमंमि समए इस समय । इम इस । सरीरम् शरीर को । अणुपुव्वेण=क्रमपूर्वक। परिवहित्तए धारण करने में, वहन करने में। गिल मि=समर्थ नहीं हूँ। से वह भिक्षु । अणुपुव्वेणं क्रमशः । आहारं आहार को । संघट्टिजा कम करे। आणुपुव्वेण क्रमशः । श्राहारं=
आहार को। संवट्टित्ता कम करके । कसाए-कपायों को। पयणुए पतले । किच्चा करके । समाहियच्चे कायव्यापार को नियमित करके । फलगावयही लकड़ी के पाटियों के समान सहनशील होकर । भिक्खू साधु । उहाय-समाधिमरण के लिए तय्यार होकर । अभिनिव्वुडच्चे शरीर संताप से रहित होकर । गाम वा ग्राम । नगरं वा नगर । खेडं वा-मिट्टी की कोट वाला खेडा । कब्बडं वा-छोटी कोट वाला कस्वा । मडंब वा अढाई गव्यूति के अन्दर दूसरा ग्राम न हो ऐसी वस्ती। पत्तनं वा-पाटण । दोणमुहं वा बन्दरगाह । आगरं वा-खान । आसमं वा= आश्रम । सत्रियेसं वा-यात्रा स्थानों में । नेगमं वा व्यापारियों के व्यापारस्थलों में । रायहाणिं वा राजधानी में । अणुपविसित्ता प्रवेश करके । तणाई-तृण की । जाइजा-याचना करे। तणाई-तृण । जाइत्ता याचकर । से वह भिक्षु । तमायाए उन्हें लेकर । एगंतं एकान्त स्थान में । अवकमिजा-जावे | एगतमद कमित्ता-एकान्त में जाकर । अप्पंडे-अंडों से रहित । अप्पपाण-प्राणियों से रहित । अप्पबीए बीजरहित । अप्पहरिए हरियालीरहित । अप्पोसे ओसरहित । अप्पोदए जलरहित । अप्पुत्तिंग पणग-दग-मट्टियमक्कडासंताणए कीड़ी के नगरे, फूलन काई, पानी से गीली मिट्टी, मकड़ी के जाले से रहित स्थान को । पडिलं हिय २=देख २ कर । पमजिय २=पंज २ कर । तणाई संथरिजा-तृणों को विछावे । तणाई संथरित्ता-तृण बिछाकर। इत्थवि-वहाँ । समए उस समय । इत्तरिय इन्वरिक-इंगितमरण । कुजा करे ।
तं सच्चं इस सत्य रूप मरण को। सच्चाई-सत्यवादी। श्रोए रागद्वेषरहित। तिने संसार सेतीर्णवत् । छिन्नकहकहे='कैसे होगा' आदि भय-निराशा की कथा को छेदने वाला । अईयो= वस्तुओं के स्वरूप को जानने वाला । अण ईए संसार के बन्धन में नहीं फंसा हुआ | भेटरं नश्वर । कार्य-शरीर को । चिच्चाण=छोड़कर । विरूवरूवे अनेक प्रकार के । परीसहोवसन्गे= परीषह उपसर्गों की । संविहूय=अवगणना करके । अस्सि इस सर्वज्ञ प्रणीत आगम में। विस्सभणयाए श्रद्धा होने से । भेरवं कठिनता से आचरने योग्य इस सत्य का । अणुचिन्ने आचरण करता है। तत्थावि ऐसा मरण भी । तस्स-उसकी । कालपरियाए-कालपर्यायवत । जाव= यावत् । आणुगामियं यह अन्य जन्मों में भी पुण्यप्रद है । त्ति बेमि=ऐसा मैं कहता हूँ।
भावार्थ-जब मुनि को यह अध्यवसाय हो कि 'अब मैं इस शरीर को क्रमशः धारण करने में अशक्त हो रहा हूँ तो उसे अनुक्रम से आहार का संक्षेप करना चाहिए और ऐसा करके कषायों को पतले करने च हिए
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