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[आधाराङ्ग-सूत्रम्
साधक केवल संयमी जीवन के लिए आवश्यक होने से आहार ग्रहण करता है। उसके लिए आहार कोई आकर्षक या अनुराग की वस्तु नहीं है । जीवन के लिए आवश्यक होने से ही वह श्राहार ग्रहण करता है। इसलिए उसके लिए स्वाद का प्रश्न ही नहीं होता। वह तो जिसके द्वारा निर्वाह हो जाय उसी वस्तु को अनासक्त भाव से ग्रहण कर लेता है। वह आहार को एक प्रकार की औषधि समझता है।
जिस प्रकार औषधि लेते समय इस बात का विचार नहीं किया जाता है कि यह ( औषधि) स्वादिष्ट है या नहीं ? केवल शरीर को उसकी आवश्यकता होती है तो उसका उचित मात्रा में सेवन किया जाता है। यही बात भोजन के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए । शरीर को भोजन की आवश्यकता है इसलिए भोजन करना चाहिए। वह भोजन स्वादिष्ट है या नीरस है इससे कोई प्रयोजन नहीं होना चाहिए। जिस प्रकार औषधि कम मात्रा में लेने से अमर नहीं करती है या बहुत कम करती है और अधिक मात्रा में लेने से हानि करती है इसी तरह अन्न की भी बात समझनी चाहिए। श्राहार अत्यल्प हो तो उसके निर्वाह नहीं हो सकता है और यदि स्वादिष्ट होने की लालच से अधिक किया जाय तो वह अनर्थ का कारण होता है। इस पर से यह भी समझना चाहिए कि वस्तु को स्वादिष्ट बनाने के लिए उसमें दूसरे पदार्थ मिलाना भी अनुचित है।
यह भलीभांति समझ लेना चाहिए कि भोजन शरीर के लिए है न कि शरीर भोजन के लिए। आवश्यकता होने पर ही भोजन ग्रहण करना चाहिए। ऐसा न होना चाहिए कि खाने के लिए ही जीवन हो जाय । प्रायः ऐसा देखने में आ रहा है कि अधिकांश लोग खाने के लिए ही जी रहे हैं। उनका व्यवहार यह बताता है कि खाना-पीना ही इनके जीवन का ध्येय है। ये लोग क्षुधा के अभाव में भी खाने की उमङ्ग रखते हैं । इसलिए पदार्थ को स्वादिष्ट बनाने के लिए अनेक दूसरे पदार्थों का सम्मिश्रण करते हैं
और इस कृत्रिमता के द्वारा अपनी खाने की लालसा को पूरी करते हैं। अपनी इस लालसा को तृप्त करने के लिए वह विविध प्रयत्न करते हैं । अनेक प्रकार के खर्च करते हैं और खर्च के लिए द्रव्य प्राप्त करने के लिए अनेक प्रपञ्च करते हैं। साथ ही साथ यह भी मानना पड़ेगा कि अधिकांश बीमारियाँ श्राहार की अनियमितता से होती है। स्वाद के वश में पड़ा हुश्रा प्राणी यह नहीं सोचता कि यह पदार्थ मेरे स्वास्थ्य के लिए हितकर होगा या हानिकारक ? वह तो अपनी रसना की लोलुपता का ही ध्यान करता है। इसका परिणाम यह होता है कि उसका स्वास्थ्य बिगड़ जाता है और वैद्य, हकीम और डाक्टरों की शरण लेनी पड़ती है। एक वैद्य का कथन है कि जो स्वाद लेता है वह अपनी स्वस्थता खोता है और शरीर को भ्रष्ट करता है।
वस्तुतः अगर मनुष्य यह समझे कि जीने के लिए खाना है तो वह अनेक प्रकार के पदार्थों को अनावश्यक समझ कर स्वयं छोड़ देगा। इस प्रकार वह कई प्रपञ्चों से मुक्त हो जाता है । त्याग उसके लिए सहज हो जाता है और उसके विकार शान्त हो जाते हैं। ..
पदार्थ जब तक उपयोगिता की दृष्टि से काम में लिये जाते हैं तब तक घे विकार पैदा करने वाले नहीं होते लेकिन जब उपयोगिता का लक्ष्य भुला दिया जाता है और पदार्थों का उपभोग करना लक्ष्य हो जाता है तो वे विकार को उत्पन्न करने वाले होते हैं। इसलिए साधक आहार को जीवननिर्वाह के लिए
आवश्यक समझ कर ही उसका उपयोग कर सकता है। वह खाने के लिए आहार नहीं करता लेकिन जीवन के लिए श्राहार करता है। इसलिए सच्चे साधक के लिए स्वाद का प्रश्न ही नहीं रहता । उसे चाहे जैसा पदार्थ-निर्दोष पदार्थ-मिलता है वह उसे अनासक्तभाव से ग्रहण करता है।
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