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[आचाराग-सूत्रम्
लघुमाव प्राप्त करने का उपाय भी सूत्रकार ने बताया है। वे फर्माते हैं कि साधक को लाघव प्राप्त करने के लिए इस भावना का चिन्तन करना चाहिए-"मैं अकेला हूँ, मेरा कोई नहीं है, मैं भी किसी का नहीं हूँ" । इस प्रकार आत्मा के एकत्व का चिन्तन करना चाहिए । यह एकत्व-भावना साधक में द्रव्य और भाव-बाह्य और आभ्यन्सर लघुता को विकसित करती है । उपाधि की अल्पता से द्रव्य की लवुता स्पष्ट ही है। भाव लघुता निरभिमानता के रूप में होती है। साधक बाह्य पदार्थों का त्याग कर देता है तदपि उसे यह अभिमान नहीं होता है कि मैं बड़ा त्यागी हूँ। उसका त्याग और तप बिल्कुल स्वाभाविक ही होता है। अगर त्याग के बाद साधक में अभिमान पैदा हो जाता है तो उस साधक का विकास स्तम्भित हो जाता है। राग और द्वेष की तरह अभिमान भी संसार का मूल भाव-कारण है । साधना के मार्ग में अभिमान एक जहरीला कांटा है । यह कांटा अगर अलग लग गया तो साधक की साधना रूक जाती है। जों-ज्यों यह कांटा निकलता जाता है त्यों त्यों सरलता, उदारता और सत्यनिष्ठा जगती है। इसीलिए अभिमान का लय करने के लिए सूत्रकार ने फर्माया है। इस अभिमान का लय एकत्वभावना से होता है । "मैं अन्य हूँ, बाह्य पदार्थ मुझ से पृथक् है, मान, प्रतिष्ठा की इच्छा आदि विकृतभाव अात्मा के स्वभाव के नहीं हैं" आदि विचारों द्वारा अभिमान का लय हो जाता है। अन्तःकरण से निकले हुए विचारों का असर जीवन पर बहुत ही गाढ़ होता है। अतः एकत्वभावना के चिन्तन से साधक का जीवन अधिक और अधिक सुधरता जाता है और वह शीघ्र अपनी साधना में सफलता प्राप्त करता है ।
शेष चतुर्थ और पञ्चम उद्देशक के समान समझना चाहिए।
से भिक्खू वा भिक्खुणी वा असणं वा ४ श्राहारमाणे नो वामाश्रो हणुयायो दाहिणं हणुयं संचरिजा प्रासाएमाणे, दाहिणाश्रो वाम हणुयं नो संचरिजा श्रासाएमाणे, से अणासाएमाणे लावियं श्रागममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिच्चा सव्वश्रो सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभिजाणिया।
संस्कृतच्छाया-म भिक्षुः भिक्षुणी वा ऽशनं या आहारयनो चामतो हनुतो दक्षिणी हनु संचारयेदास्वादयन्, दक्षिणतः वामां हनु नो संचारयेदास्वादयन् , स अनास्वादयद् , लाघवः।गमयन् नपस्तस्याभिसमन्वागतं भवति. यदेतद् भगवताप्रवेदितं तदेवामिसमेत्य सर्वतः सर्वात्मतया सम्यक्त्वमेव मम भिजानीयात् ।।
शब्दार्थ-से भिक्खु-वह साधु । वा-अथवा । भिक्खुणी वा साध्वी । असणं वा ४=अशन-पानादि को | आहारमाणे आहार करते हुए | आसाएमाणे स्वाद लेते हुए । वामाश्रो हणुयानो चायें जबड़े से । दाहिणं हणुयं दायें जबड़े की ओर । नो संचारिजान ले जावे। आसाएमाण=स्वाद लेते हुए । दाहिणाओ=दायें जबड़े से । वामं हणुयं चायें जबड़े की अोर । नो संचारिजा=न ले जाये । से अणासाएमाणे स्वाद नहीं लेता हुआ वह साधु-साध्वी । लाघवियं लघुता को। आगममाणे प्राप्त करता है-- शेप सुगम है ( पूर्ववत् ) ।
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