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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir विमोक्ष नाम अष्टम अध्ययन -षष्ठ उद्देशकः . पञ्चम उद्देशक में भक्त-परिज्ञा सरण द्वारा प्राणों की आहुति प्रदान करना कहा गया है। अब इस उद्देशक में इङ्गित मरण का प्रतिपादन करते हैं। साधक के लिए मृत्यु भी जीवन के समान ही महोत्सव रूप है । जैसे बालक में सुकुमारता, युवक में उत्साह और वृद्ध में शान्ति स्वाभाविक है उसी तरह मृत्यु भी स्वाभाविक है। ऐसा समझने वाला साधक मृत्यु में भी हर्ष का अनुभव करता है । सञ्चा साधक शरीर को एक साधन समझता है और इसी श्राशय से उसकी उचित साल-सम्भाल करता है लेकिन जब यह मालूम हो जाता है कि अब यह साधन निःसत्व हो गया है-अब इसमें कोई सार नहीं रहा है तो वह साधक स्वेच्छा से प्रसन्नतापूर्वक उसका त्याग कर देता है । मृत्यु का डर कायरों को ही होता है। साधक तो हँसते २ मृत्यु से भेंट करता है । इसीलिए साधक मृत्युञ्जय हो जाता है। यही प्रकृत उद्देशक में बताया गया है: जे भिक्खू एगेण वत्येण परिवुसिए पायबिईएण, तस्स णं नो एवं भवइ बिइयं वत्थं जाइस्सामि, से अहेसणिजं वत्थं जाइजा, पाहापरिग्गहियं वत्थं धारिजा, जाव गिम्हे पडिवने श्रहापरिजुन्नं वत्थं परिविजा, अदुवा एगसाडे, अदुवा अचेले लापवियं प्रागममाणे जाव सम्मत्तमेव समभिजाणिया। जस्स णं भिक्खुस्स एवं भवइ-एगे अहमसि, न मे अस्थि कोइ, न याहमवि कस्स वि, एवं से एगागिणमेव अप्पाणं समभिजाणिज्जा, लाघवियं श्रागममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ जाव समभिजाणिया। संस्कृतच्छाया–य भिक्षुरेकेन वस्त्रेण पर्युषितः पात्रद्वितीयेन तस्य नैवं भवति-द्वितीयं वस्त्रं याचिष्ये, यथेषणीय वस्त्रं यावेत, यथा परिग्रहीत वस्त्रं धारयेत् यावद् ग्रीष्मः प्रतिपन्नः यथा परिजीर्ण वस्त्रं परिष्ठायेत् , अथवा एकशाटकः, अथवाऽचेलः, लाघवमागमयन् यावत् सम्यक्त्वमेव समभिजानीयात् । यस्स भिक्षोरेव भवति–एकोऽहमस्मि, न मेऽस्ति कोऽपि, न चाहम् कस्यापि एवंस एकाकिन मेवात्मानम् समभिजानीयात् लाघवमागमयन् तपस्तस्याभिसमन्वागतं भवति यावत् समभिजानीयात् । शब्दार्थ-जे भिक्खू जो भिनु । पायबिईएण=पात्रद्वितीय । एगेण वत्थेण=एकवस्त्र रखने की मर्यादा करके । परिवुसिए रहा हुआ है । तस्स णं नो एव भवइ उसे यह भावना नहीं For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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