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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५४६ ) [आचारा-सूत्रम आहारादि लाऊँगा और दूसरे द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूँगा (२) मैं दूसरे श्रमणों के लिए ला दूंगा परन्तु दूसरों का लाया हुआ नहीं लूँगा (३) मैं दूसरों के लिए नहीं लाऊँगा परन्तु दूसरों का लाया हुआ स्वीकार करूँगा ( ४ ) मैं दूसरों के लिए लाऊँगा भी नहीं और उनका लाया हुआ स्वीकार भी नहीं करूँगा । इन चार प्रतिज्ञाओं में से जैसे प्रतिज्ञा की हो उसके अनुसार सद्धर्म की आराधना करता हुआ श्रमण साधक संकटों के आने पर भी शांत और पापों से विरत तथा सद्भाव की श्रेणी पर चढ़ता हुआ मृत्यु को. पसन्द करता है परन्तु प्रतिज्ञा का भंग किन्हीं भी संयोगों में नहीं होने देता है। ऐसी स्थिति में उसका मरण यशस्वी मरण है, यह मरण कालपर्याय के समान माना गया है ( कालपर्यायअर्थात् बारह वर्ष तक क्रमशः दीर्घतपश्चर्या के बाद शरीर के निसत्व होने पर अनशन करना ) ऐसा वीर साधक कर्मों का क्षय कर सकता है। इस तरह का संकल्प-बल या ऐसा यशस्वी मरण अनेक निर्मोही पुरुषों द्वारा आचीर्य है, यह हितकर, सुखकर, समुचित, कर्मक्षय का कारणभूत और अन्य जन्म में भी पुण्य-परम्परा का देने वाला है ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सेवा और स्वालम्बन को श्रमण-जीवन के प्राणभूत तत्त्व कहे हैं। साधक का जीवन स्वावलम्बी होना चाहिए। उसे दूसरों की सेवा लेने की आवश्यकता न होनी चाहिए। उसे इस प्रकार सावधानी रखनी चाहिए कि उसका जीवन दूसरों के लिए भारभूत न बने । इसके लिए उसे परिश्रमी होना चाहिए ताकि वह रोगों का शिकार न बने । परिश्रमी जीवन व्यतीत करने वाला साधक कमजन्य व्याधि के सिवाय प्रायः व्याधियों से ग्रसित नहीं होता । जब साधक सावधानी रखता हुआ भी कमों के उदय से बीमारी का भोग बन जाय तो भी वह अपनी सेवा करने के लिए किसी को न कहे और समभावपूर्वक वेदना सहन करे । यदि कोई सहधर्मी श्रमण उसकी ग्लानदशा के कारण उसकी खेच्छा से सेवा करना चाहे तो साधक उसकी सेवा का स्वीकार कर सकता है। अगर कोई दूसरा साधक अस्वस्थ हो या तपश्चर्यादि द्वारा ग्लान हो तो साधक का कर्त्तव्य है कि निस्वार्थ भावना से उसकी सेवाशुरूषा करे। पारस्परिक सेवाशुश्रूषा सहधार्मियों में वात्सल्यभाव पैदा करती है जो कि श्रमणसंस्था के लिए आवश्यक है। सूत्रकार ने सूत्र में भक्तपरिज्ञा मरण का निर्देश किया है ऐसा टीकाकार ने टीका में स्पष्ट किया है। साधक अपनी प्रतिज्ञा का पालन अखण्ड रूप से करे। अगर उसे प्रतिज्ञा पालने के लिए अपने प्राणों की आहुति देनी पड़े, मतपरिज्ञा मरण द्वारा मृत्यु का आलिंगन करना पड़े तो कोई चिन्ता नहीं परन्तु अपनी गृहीत प्रतिमा का त्याग करना ठीक नहीं है। साधक अगर प्रतिज्ञा के पालन में शिथिलता कन्ता है तो यह उसकी साधना के लिए भयंकर होता है क्योंकि यह शिथिलता उपादान को विकृत कर देती है। उपादान के विकृत होने पर निमित्त लाभदायी नहीं हो सकते । इसलिए प्रतिज्ञा भंग करने की अपेक्षा प्राणभग करना अधिक अच्छा है। यह मरण अपघात मरण नहीं है वरन् समाधि मरण गिना जाता है। यह मरण कालपयोग के समान ही यशस्वी है। यह मरण हितकारी, सुखकारी, मोक्ष का कारण रूप और पुण्य-परम्परा को जन्मान्तर में भी उत्तराधिकार में देने वाला है । अनेक निर्मोही पुरुषों ने इसका सेवन किया है। For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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