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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५४४ [ श्राचारा-सूत्रम् घर कर लेंगे। इससे साधक के जीवन में अकर्मण्यता प्रविष्ट हो जायगी और वह साधक साधना में शिथिल होता जायगा । साधक जीवन में स्फूर्ति और कर्मण्यता को बनाये रखने के लिए श्रम की आवश्यकता है। श्रम के बिना जीवन वासी होता है। श्रम जीवन को ताजा रखता है। अगर साधक को अपने स्थान पर ही आहार मिलने लगे तो वह श्रम से वञ्चित रहेगा और इसका फल साधना के लिए अहितकर होगा। इस श्राशय से सूत्रकार ने यह प्रतिषेध किया है कि साधक अशक्ति में भी गृहस्थ द्वारा लाया हुआ आहार न करे। यहाँ पाठान्तर भी है । वह इस प्रकार है:-तं भिक्खु केइ गाहावइ ! उवसंकमिनु वूगाआउसंतो समणा! अहन्न तव अट्ठाए असणं वा ४ अभिहडं दलामि, से पुवामेव जाणेजा 'पाउसंतो गाहावई ! जनं तुम मप्र अट्ठार असणं वा ४ अभिहडं चेतेसि, णो य खलु मे कप्पड मे एयापगारं असणं वा ४ भोत्तर वा पापए वा अन्न वा तहप्पगारे' इस पाठान्तर का पाठ सरल है अतः पुनः नहीं किया जाता है। जस्स णं भिक्खुस्स अयं पगप्पे अहं च खलु पडिन्नत्तो अपडिन्नत्तेहिं गिलाणो अगिलाणेहिं अभिकंखं साहम्मिएहिं कीरमाणं वेयावडियं साइजि. स्सामि, अहं वावि खलु अपडिन्नत्तो पडिन्नत्तस्य अगिलाणो गिलाणस्स अविकंखं साहम्मियस्स कुजा वेयावडियं करणाए अाहट्ट परिन्नं अणुक्खिस्सामि श्राहडं च साइजास्सामि ? अाहटु परिनं प्राणक्खिस्सामि श्राहडं च नो साइजास्सामि २, श्राहटु परिनं नो प्राणक्खिस्सामि श्राहडं च साइजास्सामि ३, बाहटु परिनं नो प्राणक्खिस्सामि ग्राहडं च नो साइजिस्मामि ४, एवं से आहाकिट्टियमेवधम्म समीमभिजाणमाणे संते विरए, सुसमाहयलेसे तत्थावि तस्य कालपरियाए, से तत्थ विप्रन्तिकारए, इच्छेयं विमोहाययणं हियं सुहं खमं, निस्सेसं प्राणुगामियं त्ति बेमि। संस्कृतच्छाया-यस्स भितोरयं प्रकल्पः-अहञ्चखलु प्रतिज्ञप्तः, अप्रतिशतैः, ग्लानः अग्लानः अभिकांक्ष्य सार्मिकः क्रियमाणं वैयावृत्य स्वादयिष्यामि. अहं वापि बलु अप्रतिशप्तः प्रतिज्ञप्तस्याग्लानो ग्लानस्याविकांक्ष्य साधर्मिकस्य कुर्याम् वैयावृत्यं करणाय, श्राहृत्य प्रतिक्षामन्वेषयिष्यामि, आवृतश्चस्वादयिष्यामि १, बाहृत्य प्रतिक्षामन्वेषयिष्यामि पाहतञ्चनोस्वादपिष्यामि २, अ.हत्यप्रतिज्ञा नान्वेषयिष्यामि, आहनञ्च स्वादथिष्यामि ३, आहृत्यप्रतिज्ञां नान्वेषयिष्यामि, पाहृतञ्च नो स्वादयिष्यामि ४, यथा कीर्तितमेव धर्म समभिजानत् शान्तो विरतः, सुसमाहृत लेश्यः, तत्रापि तस्य कालपर्यायः स तत्र व्यन्तिकारकः, इत्येतद् विमोहायतनं हितं सुख क्षम, निश्रेयसमानुगामिकमिति ब्रवीमि । For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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