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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir ५४२ ] [ श्रधाराङ्ग-सूत्रम् (१०) दसवीं प्रतिमा आठवीं की तरह है। इसमें विशेषता यह है कि समस्त रात्रि गोदुहासन या वीरासन से स्थित होकर व्यतीत करना चाहिए। गाय दुहने के लिए जिस आसन से दुहने वाला बैठता है वह गोदुहासन है । पाट पर बैठकर दोनों पैर जमीन से लगा लिए जांय और पाट हटा लेने पर उसी प्रकार अधर बैठा रहना वीरासन है । (११) ग्यारहवीं प्रतिमा में षष्ठभक्त (बेला) करना चाहिए। दूसरे दिन ग्राम से बाहर आठ प्रहर तक कायोत्सर्ग करके खड़ा रहे । (१२) बारहवीं प्रतिमा में श्रष्टमभक्त (तेला ) करना चाहिए। तीसरे दिन श्मशान में अथवा वन में कायोत्सर्ग करके खड़ा रहना चाहिए और उस समय जो भी उपसर्ग हो उन्हें स्थिरचित्त से सहन करना चाहिए। भिक्षु की बारह प्रतिमाएँ हैं । प्रतिमाधारी या उच्चभूमिका पर पहुँचा हुआ साधक दो ही से अपना काम निकालता है। वह क्रमशः बाह्य उपाधि को कम कर देता है और यहाँ तक कि सर्वथा वस्त्ररहित होकर साधना में जुड़ जाता है। उसे अपने शरीर पर भी ममत्व नहीं होता तो उसे वस्त्रों पर ममत्व कैसे हो सकता है ? पदार्थों के त्याग से वह ममत्वरहित हो जाता है । ममत्व त्याग ही आदर्श त्याग है। आदर्श त्याग ही आदर्श तपश्चर्या है। इस सूत्र का विशेष विवेचन चतुर्थ उद्देशक के प्रथम द्वितीय सूत्रवत् समझना चाहिए । जस्सगं भिक्खुस्स एवं भवइ - पुट्ठो अबलो अहमंसि नालमहमंसि गिहंतर-संकमणं भिक्खायरियं गमणाए, से एवं वयंतस्स परो अभिहडं असणं वा ४ आटु दलइज्जा, से पुव्वामेव श्रालोइज्जा श्राउसंतो ! नो खलु मे pus as असणं वा भुत्तए वा पायए वा अन्ने वा एयप्पगारे | संस्कृतच्छाया—यस्य ( णं वाक्यालंकारे) भिक्षोरेवं भवति स्पृष्टोऽहमस्मि ( रोगैः ) नालमहमस्मि गृहान्तरसंक्रमणं भिक्षाचयां गमनाय तस्यैवं वदतः परोऽभिहृतमशनं वा ४ श्राहृत्य दद्यात् पूर्वमेवालाचयेत् श्रायुष्मन् ! न खलु मे कल्पतेऽभिहृतमशनं वा ४ भोक्तुं पातुं वा अन्यं वा पतत्प्रकारं । 1 शब्दार्थ — जस्स णं भिक्खुस्स = किसी साधक को । एवं भवइ =ऐसा मालूम दे कि । पुट्ठो=रोगद्वारा स्पृष्ट होने से । अबलो मंसि= मैं निर्बल हो गया हूँ । गिहंतर-संकमणं - एक घर से दूसरे घर जाने । भिक्खायरियं =और भिक्षाचर्या के लिए । गमगाए जाने में । नालमहमंसि=मैं समर्थ नहीं हूँ । से एवं वयंतस्स = ऐसा कहने वाले साधक को । परो = कोई गृहस्थ | अभिहडं=सन्मुखस्थान पर लाया हुआ । असणं वा ४ = अशन-पानादि । श्रहट्टु = लाकर । दलइजा = देवे तो | से= वह साधु । पुव्वामेव = पहले ही । श्रलोइजा = विचार ले और कहे कि । उसंतो = हे आयुष्मन् ! अभिहडं = सन्मुख लाया हुआ । असणं वा = अशनादि । श्रभे वा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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