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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir [प्राधारा-सूत्रम् . . इसी सूत्र में सूत्रकार ने यह कहा है कि साधक जैसे भी वन मिले वैसे धारण करे । इसका आशय यह है कि साधक को वस्त्रों के प्रकार का आग्रह नहीं होता। वह शरीर की लज्जा और शीतादिसे बचने के उद्देश्य से वस्त्र धारण करता है न कि शरीर की सुन्दरता के लिए। ऐसी अवस्था में वह वस्त्रों की सुन्दरता या असुन्दरता का विचार कैसे कर सकता है ? "अपलिश्रोवमाणे गामंतरेसु श्रोमचेलिए" कहकर सूत्रकार यह फर्मा रहे हैं कि साधक को बहुमूल्य वन न धारण करने चाहिए। पहली बात तो यह है कि साधक सर्वथा अपरिग्रही होता है । उसकी भावना जगत् से कम से कम लेने की और अधिक से अधिक देने की होती है। ऐसा साधक जगत् से बहु. मूल्य वन कैसे ले सकता है ? जिसने संसार के समस्त पदार्थों से ममत्व दूर कर दिया है और जो त्यागी है उसे बहुमूल्य वस्त्र शोभा नहीं देते । बहुमूल्य वन संयमी जीवन के साथ संगत नहीं है । दूसरी बात यह है कि यदि साधक बहुमूल्य वस्त्र धारण करेगा तो प्रामान्तर में विहार करते हुए उसे चोरादि का भय बना रहेगा। चोरादि द्वारा चुराये जाने की सम्भावना से भी बहुमूल्य वस्त्र धारण करना योग्य नहीं है"। "प्रोमचेलए" पद में "अवम" का अर्थ "अल्प" है। यहाँ अल्पता, मूल्य और प्रमाण दोनों की अपेक्षा से समझनी चाहिए । तात्पर्य यह है कि साधक अल्प से अल्प प्रमाण में और अल्प से अल्प मूल्य का वसधारण करे। यह वस्त्रधारी साधक का कल्प है । सूत्रकार ने सूत्र में “पात्र" शब्द दिया है। इससे सात प्रकार के पात्रनिर्योग का ग्रहण स्वयमेव हो जाता है । सात प्रकार का पात्रनिर्योग इस प्रकार है: पत्तं पत्ताबन्धो पायट्ठवणं च पायके सरिश्रा। पडलाइ रयत्ताण च गोच्छओ पायणिजोगो।। अर्थात्-(१) पात्र (२) पात्रबन्धन (३) पात्रस्थापन (४) पात्रके शरीका ( पूञ्जनी) (५) पटल (६) रजस्त्राण (७) गोच्छक ये सात पात्रनिर्योग हैं। सप्तपात्रनिर्योग, तीन वस्त्र, रजोहरण और मुखवत्रिका यह बारह प्रकार की ओघ उपधि वह रखता है, अन्य संस्तारकादि उपधि नहीं रखता है। यह अभिग्रहधारी भितु की अपेक्षा से समझना चाहिए । तात्पर्य यह है कि प्रत्येक साधक के लिए वस पात्रादि की ममत्वरहित मर्यादा करना आवश्यक है। इसके द्वारा ही वृत्ति संयम को व्यावहारिक और रचनात्मक रूप दे सकता है। अह पुण एवं जाणिजा-उवाइकते खलु हेमंते गिम्हे पडिवन्ने अहापरिजुनाइं वत्थाइं परिविजा, अदुवा संतरूत्तरे अदुवा श्रोमचेले अदुवा एगसाडे अदुवा अचेले, लाघवियं श्रागममाणे तवे से अभिसमन्नागए भवइ, जमेयं भगवया पवेइयं तमेव अभिसमिचा सव्वश्रो सव्वत्ताए सम्मत्तमेव समभि जाणिज्जा। संस्कृतच्छाया-अथ पुनरेवं जानीयात्-अपक्रान्तः खलु हेमन्तो ग्रीष्मः प्रतिपन्नः यथा परिजीर्णानि वस्त्राणि परिष्ठापयेत् , अथवा सान्तरोत्तरोऽथवा ऽवमचेलः अथवैकः शाटकः, अथवा For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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