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अष्टम अश्ययन तृतीयोदेशक ]
[५२९
प्राणी मात्र में दया का भाव स्वाभाविक रूप से होता है । दया का कार्य भावनाप्रधान होता है । प्रत्येक प्राणी को हृदय है तो उसमें सहृदयता (दया) स्वतःसिद्ध है। विवेकी साधक विशेष रूप से अपने स्वभाव की ओर अग्रसर होता है जब कि साधारण वर्ग स्वभाव से गिर कर परभाव में अग्रेसर होता है । मुनि-साधक की दया स्वाभाविक दया है-उसमें किसी की प्रेरणा नहीं है । साधक दया करता हुआ यह नहीं समझता है कि मैंने अमुक की दया कर उस पर अनुग्रह किया वरन् यह समझता है कि यह मेरा सहज काम है। उसे यह प्रवृत्ति सहज होती है और वह परदया को स्वदया ही समझता है। दया प्राणीमात्र का स्वभाव है और साधक स्वभाव में रमण करता है अतएव उसका जीवन दयामय ही होता है।
शास्त्रकार फरमाते हैं कि जिस व्यक्ति ने संयम के इस तत्त्व को यथार्थरूप से समझ लिया है वही साधक अवसर को पहचानने वाला, अपनी शक्ति को जानने वाला, मात्रा को जानने वाला, समय को जानने वाला, विनय को जानने वाला और शास्त्रों का जानने वाला है। ऐसा साधक परिग्रहरहित होकर निष्काम कार्य करता हुआ और राग-द्वेष के बाह्याभ्यन्तर बन्धन को तोड़कर विकास के मार्ग में आगे बढ़ता जाता है और विकास की पराकाष्ठा को प्राप्त कर लेता है।
“कालन्ने बलन्ने" आदि पदों की व्याख्या लोकविजय अध्ययन के पञ्चम उद्देशक में की जा चुकी है अतएव यहाँ विस्तार नहीं किया जाता है। ___ तं भिक्खं सीयफास-परिवेवमाणगायं उवसंकमित्ता गाहावई बूयाअाउसंतो ! समणा ! नो खलु ते गामघम्मा उव्वहंति ? पाउसंतो गाहावई ! नो खलु मम गामधम्मा उव्वाहंति सीयफासं च नो खलु अट्ट संचाएमि अहि यासित्तए, नो खलु मे कप्पइ अगणिकायं उजालित्तए वा, पजालित्तए का, कार्य प्रायवित्तए वा पयावित्तए वा अन्नेसि वा वयणागो, सिया स एवं वयंतस्स परो अगणिकायं उजालित्ता पजालित्ता, कायं श्रायाविज पयाविज वा तं च भिक्खू पडिलेहाए प्रागमित्ता प्राणविज सेवणाए त्ति बेमि ।
संस्कृतच्छाया-तं मितुम् शीतस्पर्शपरिवेशमानगात्रमुपसंक्रम्य गृहपति यात्-श्रायुष्मन् श्रमण ! नो त्वां ग्रामधर्मा उद्बाधन्ते? आयुष्मन् ! गृहपति ! नैव माम् प्रामधर्मा उद्याधन्ते शीतस्पर्शम् च न खल्वहं शक्नोम्यधिसोएं, न खलु मे कल्पते ऽग्निकायमुज्ज्वालयितु प्रज्वालयितुं वा, कायमातापयितुं प्रतापयितुमन्येषां वा वचनात् । स्यात् स एवं वदतः परोऽग्निकाय मुज्ज्वाल्य प्रज्वाल्य कायमातापयेत् प्रतापयेद्वा तच्च भिनुः प्रत्युपेक्ष्यावगम्य ज्ञापयेदना सेवनाय त्ति ब्रवीमि ।
शब्दार्थ-सीयफासपरिवेवमाणगाय-शीत स्पर्श से काँपते हुए शरीर वाले । तं भिक्खु-भिनु के । उवसंकमित्ता=पास आकर । गाहावई कोई गृहस्थ । ब्रूया बोले । भाउसंतो समणा हे आयुष्मन् श्रमण ! । गामधम्मा-ग्रामधर्म-काम तो । नो खलु ते उव्वाहंति-आपको
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