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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org विमोक्ष नाम अष्टम अध्ययन - तृतीयोदेशकः Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir 4 म अध्ययन के दो उद्देश्यों की व्याख्या की जा चुकी है। अब तृतीय उद्देशक प्रारम्भ होता है। गत उद्देशक में कुसंग परिहार और अकल्प-त्याग का वर्णन कर चुकने पर इस उद्देशक में सूत्रकार त्यागी साधक के जीवन को स्पर्श करती हुई महत्वपूर्ण बात का उल्लेख करते हैं। वह बात है विवेकमय समदृष्टि | विश्व के मन में विविध प्रकार की मान्यताएँ प्रचलित हैं। भिन्न-भिन्न वाद, दर्शन और पन्थों की परम्परा दृष्टिगोचर होती हैं। इन सबके बीच में सत्य को पाना एक बड़ी जटिल समस्या है। समझदार साधक भी इस सम्बन्ध में एक बार भूलभूलैया में पड़ जाता है। इस उद्देशक में श्रमण भगवान् महावीर ने इस समस्या का संक्षिप्त समाधान कर दिया है। वे साधक के सामने उसके जीवन के आदर्श की ऐसी त्रिकालाबाधित रूपरेखा खींचते हैं कि फिर उसके सामने यह चकराने वाला प्रश्न ही नहीं उपस्थित होता है । वे इस विषय को स्पष्ट करते हुए सूत्ररूप में फरमाते हैं: मज्झिमेणं वयसा वि एगे संबुज्झमाणा समुट्टिया, सुच्चा मेहावी वयणं पंडिया निसामिया. समिया धम्मे श्ररिएहिं पवेइए ते प्रणवकखमाणा rusवाएमाणा अपरिग्गहेमाणा नो परिग्गहावंती सव्वावंति चणं लोगंसि निहाय दंड पाणेहिं पावं कम्मं कुव्वमाणे एस महं गंथे वियाहिए, प्रोए जुइमस्स खेयन्ने उववायं चवणं च नचा | For Private And Personal संस्कृतच्छाया - मध्यमेन वयसापि, एके सम्बुध्यमानाः समुत्थिताः, श्रुत्वा मेधावी परिडतानां वचनं निशम्य (समतामालम्बेत) समतया धर्मः श्रायैः प्रवेदितः तेऽनभिकाङ्क्ष्वन्तः, श्रनतिपातयन्त:, अपरिगृह्यन्तः न परिग्रहवन्तश्च सर्वस्मिन्नपि लोके, निधाय दण्डं प्राणिषु (प्राणिभ्यो वा ) पा कर्माकुवाणः एषो महान् अग्रन्थः व्याख्यातः, प्रोजः द्यतिमतः खेदज्ञः उपपातं व्यवनं च ज्ञात्वा । शब्दार्थ - एगे - कतिपय साधक । मज्झिमेणं - मध्यम । वयसावि = वय में भी । संबुज्झमाणा= जागृत होकर । समुट्ठिया = त्यागमार्ग में पुरुषार्थी बने हैं। मेहावी - बुद्धिमान् । पंडिया = पंडितों के । वयणं वचन को । सुच्चा = सुनकर | निसामिया = धारण कर समता का आश्रय ले । श्ररिएहिं = आर्यपुरुषों ने । समियाए समता में | धम्मे= धर्म | पवेइए कहा है। ते= ऐसे साधक | अवकखमाणा = कामभोगों की इच्छा न करते हुए | 1 इवाएमाणा = किसी प्राणी
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
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