SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 564
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir मन द्वितीयदेशक ] [ ५२१ उद्देश्य से बनाये गए आहार का कदापि ग्रहण नहीं करता है । जो व्यक्ति अपनी आवश्यकता पर संयम करके मुनि को देता है वही संयम-जन्य आहार है और उसे ही मुनि ग्रहण कर सकता है । यद्यपि मुनि जगत् का आदर्श है तदपि वह इतनी उच्च भूमिका पर पहुँच जाता है कि वह दुनिया के किसी पदार्थ पर अपना हक नहीं समझता है । इसलिए वह अपने उद्देश्य से निर्मित पदार्थों का त्याग करता है । साधक इस उपर्युक्त आशय को भलीभांति समझ कर इस प्रकार के दूषित आहार को कदापि ग्रहण न करे। संकटों से डरकर अथवा भक्तों की भक्ति के अनुचित दबाव में आकर अपने नियमोपनियमों शिथिलता करना निर्वलता है, यह त्यागी जीवन के लिए संगत नहीं है । अतएव दृढ़ता और निर्भीकता के साथ अपने नियमों का पालन करना साधक का परम कर्त्तव्य हैं । से समणुन्ने असमणुन्नस्स असणं वा जाव नो पाइजा नो निमंतिज्जा, नो कुना वेयावडियं परं श्रादायमा त्ति बेमि । धम्ममायाह पवेइयं माहपेणं महमया समणुने समणुन्नस्स असणं वा जाव कुजा वैयावडियं परं वाढायमाणे ति बेमि । संस्कृतच्छाया- -स समनोशः असमनोज्ञायाशनं वा यावन्नो प्रदद्यात्, नो निमन्त्रयेत, नो कुर्याद् वैयावृत्यं परमाद्रियमाण इति ब्रवीमि । धर्ममाजानीत प्रवेदितं वर्द्धमानस्वामिना ( माह रोग ) मतिमता-समनोज्ञः समनोशायाशनं वा यावत् कुर्याद् वैयावृत्यं परमाद्रियमाण इति ब्रवीमि । शब्दार्थ -- से समरणुन्ने - समनोज्ञ साधु । असमणुन्नस्स=असमनोज्ञ व्यक्ति को । परं श्राढायमाणे = अत्यन्त श्रादरपूर्वक । असणं वा श्राहारादि । जाव= यावत् | नो पाइजा = न देवे | नो निमंतिजा = निमंत्रण भी न करे । नो कुञ्जा वेयावडियं - और वैयावृत्य भी न करे । त्ति बेमि= ऐसा मैं कहता हूँ । मइमया - ज्ञानी । माहणेण = वर्द्धमानस्वामी ने । धम्मं पवेइयं - यह धर्म प्रवेदित किया है। प्रयागह = सो बराबर समझो कि । समणुन्ने = समनोज्ञ साधु । समणुन्नस्स= समनोज्ञ साधु को । श्राढायमाणे—अत्यन्त आदरपूर्वक | असणं अशनादि दे । जाव = यावत् । वेयाघडियं= वैयावृत्य करे | 1 भावार्थ – समनोज्ञ साधु आदरपूर्वक असमनोज्ञ साधु को आहार या वस्त्रादि न दे, निमन्त्रण न दे और सेवा शुश्रूषा न करे ऐसा मैं कहता हूँ । श्रहो साधको ! ज्ञानी भगवान् महावीरस्वामी ने जो धर्म कहा है उसका स्वरूप बराबर समझो। संविग्न साधु, संविग्न साधु को श्रादरपूर्वक आहार वस्त्रादि दें, निमंत्रण दें, और उनकी सेवा शुश्रूषा करे ऐसा मैं कहता हूँ । विवेचन - इस सूत्र में सूत्रकार असमनोज्ञ साधु के साथ आहारादि का दान प्रतिदान- व्यवहार का निषेध करते हैं। शंका हो सकती है कि प्रथम उद्देशक में कुसंग परित्याग में यह कहा जा चुका है फिर For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy