SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 562
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailashsagarsuri Gyanmandir अष्टम अध्ययन द्वितीयोद्देशक ] [५११ संस्कृतच्छाया-भिक्षुञ्च खलु पृष्ट्वा वाऽपृष्ट्वा वा य इमे, श्राहृत्य ग्रन्थाः (अथवा-माहृत्य ग्रन्थात्) वा स्पृशन्ति, स हन्ता, हत, क्षणुत, छिन्त, दहत, पचत, पालुम्पत, विलुम्पत सहसात् कारयत विपरामशत, तर स्पर्शान्धरिः स्पृष्टः सन्नधिसहेत अथवा ऽऽचारगोचर माचक्षीत, तकायत्वा अनीदृशम् अथवा वाग्गुप्तिर्विधेया, गोचरस्यानुपूर्व्या सम्यक्प्रत्युपेक्षत, श्रात्मगुप्तो, बुद्धरेतत्प्रवेदितम् । शब्दार्थ-जे इमे ये कोई गृहस्थ । भिक्खु च खलु-भिक्ष को । पुट्ठा वा=पूछकर अथवा । अपुट्ठा वा=बिना पूछे । श्राहच्च गंथा बहुत द्रव्य खर्च करके आहार बनाते हैं, साधक के न लेने पर । फुसंति-उसे पीड़ा देते हैं। से हंता कदाचित् वह मारने लगे व कहे कि । हणह-इसे मारो । खणह-दण्डादि से कूटो । छिंदह हाथ पाँव छेदो । दहह अग्नि में जलाओ। पयह पकाओ । आलुम्पह-वस्त्रादि लूटो । विलुम्पह-सर्वस्व छीन लो । सहसाकारहाणरहित कर दो । विपरामुसह विविधरीति से पीड़ा दो। पुट्ठो=इन कष्टों से स्पृष्ट होने पर । धीरो=धीर साध । ते फासे-उन दुखों को । अहियासए सहन करे । अदुवा अथवा । तकिया योग्य व्यक्ति विचार कर । णमणेलिसं अच्छी तरह--अनन्यरीति से । आयारगोयरं साधु का आचार-गोचर। आइक्खे-कहे । अदुवा-अथवा । वइगुत्तिए-मौन रहे । आयत्तगुत्ते-आत्मगुप्त होकर । अणुपुत्रेण क्रम से । गोयरस्स-आचार-गोचर का । संमं पडिलेहए अच्छीतरह पालन करता रहे। बुद्धेहि-ज्ञानियों ने । एवं यह । पवेइयं बार-बार कहा है । ___ भावार्थ-कोई गृहस्थ मुनि साधक को पूछकर ( मुनि के निषेध करने पर भी ) छल करके अथवा बिना पूछे व्यर्थ का बहुत खर्च करके आहारादि बनाकर मुनि को देने लगे। मुनि ऐसा आहार नहीं लेते हैं तब वह गहस्थ अपनी भावना पूर्ण न होने से मुनि पर क्रोध करे, मारे अथवा बोले कि "इसको मारो, कूटो, हाथ-पांव का छेदन करो, अमि से जलाओ, इसका मांस पकायो, इसके वस्त्रादि लूटो, इसका सर्वस्त्र छीन लो, इसको प्राणरहित कर दो अथवा विविध रीति से यातनाएँ दो” । इस प्रकार संकट में पड़कर भी धैर्य और समता द्वारा मुनि प्रसन्नतापूर्वक इन कष्टों को सहन करे । अगर सामने वाला व्यक्ति सुयोग्य हो तो उसे ऐसे प्रसंग पर मुनि के आचार-विचार का सुन्दर रीति से परिचय करावे और अगर इस उपदेश का विपरीत असर होने की सम्भावना मालूम दे तो मौन धारण करना चाहिए । परन्तु इन कष्टों से डरकर दूषित अाहार न ले। मुनि-साधक अपने आचार-गोचर में सावधान रहे ऐसा ज्ञानी पुरुषों ने बार-बार कहा है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में मुनि-साधक को अपने नियमोपनियमों में दृढ़ रहने का उपदेश दिया गया है । साधक का यह कर्त्तव्य है कि चाहे प्राणान्त कष्ट का प्रसंग भी प्राप्त क्यों न हो, अपने नियमों में कदापि शिथिलता न आने दे । साधक अपने नियमों में किसी भी कारण से शिथिलता नहीं आने देता है। कई प्रसंग तो ऐसे आते हैं जब साधक को कष्टों का सामना करना पड़ता है और वह कष्ट सहन कर अपने For Private And Personal
SR No.020005
Book TitleAcharanga Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSaubhagyamal Maharaj, Basantilal Nalvaya,
PublisherJain Sahitya Samiti
Publication Year1951
Total Pages670
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_acharang
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy